महामारी से मिले सात सबक
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कोरोना का संक्रमण दौर अब समाप्ति की ओर जाता हुआ प्रतीत हो रहा है। चिकित्सकीय शब्दों में इसे एन्डेमिक कहा जा सकता है। एक अति सूक्ष्म जीवाणु ने हमारे चरित्र, हमारे शासन की परीक्षा ली है। कोविड के पूरे दौर पर एक नजर डालकर यह देखने का समय है कि हमने क्या सीखा ?
- कोविड का पहला सबक बताता है कि शासन के हथौडे को सावधानी से चलाया जाना चाहिए। भारत का लॉकडाउन दुनिया का सबसे कठोर कहा जा सकता है। एक झटके में लाखों लोग बेरोजगार हो गए। प्रवासियों को घर जाने का समय नहीं दिया गया। दूसरे देशों की ओर देखें, तो दक्षिण अफ्रीका ने एक सप्ताह और बांग्लादेश ने चार दिन का समय दिया था। एक नियोजित और लक्षित लॉकडाउन से सवा अरब जनता को उतना नुकसान नहीं होता, जितना कि इससे हुआ।
हमारी जीडीपी 6.6% गिर गई, जबकि हमने प्रति लाख जनसंख्या पर 38 लोगों की जान गंवाई। हमारे पड़ोसी बांग्लादेश की जीडीपी में 3.5% की वृद्धि हुई, जबकि प्रति लाख पर उसने केवल 18 जाने गंवाई।
- दूसरे, इस त्रासदी ने हमें स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की जरूरत पर सबक दिया है। भारत से छोटे कई देशों ने इसमें अभूतपूर्व सुधार किया है। थाइलैण्ड ने अपनी सार्वजनिक व निजी स्वास्थ्य सेवाओं को मिलाकर अपने स्वास्थ्य विभाग को दो भागों में विभाजित किया है। एक भाग एजेंसी के रूप में कार्य करता है , जो नागरिकों के लिए हैल्थकेयर खरीदता है, और दूसरा सरकारी अस्पताल चलाता है। इसके अलावा यह भाग ग्रामीण और प्राथमिक स्वास्थ्य नेटवर्क को संभालता है। कोरोना ने हमें सीखा दिया है कि स्वास्थ्य की देखभाल कोई व्यय नहीं, बल्कि निवेश है।
- तीसरा सबक डेटा से जुडा है। सही डेटा की कमी से कोरोना के प्रति प्रशासन की लापरवाही बढ़ी। एक एप आाधारित सही डेटाबेस से टेस्टिंग, संक्रमण और मृत्यु पर सही आंकड़ें मिलने से शासन का सही निर्णय लेने में सुविधा होती।
यह विडंबना ही है कि भारत के आईटी विशेषज्ञ दुनिया को सही डेटा आधारित निर्णय लेने में सहायता दे रहे हैं, और भारत इससे वंचित है।
भारत के स्थानीय प्रशासन तक सही डेटा का प्रसार किया जाना चाहिए।
भारत ने जनता के बडे भाग को वेक्सीन आपूर्ति की । परंतु अगर इसका आर्डर जल्दी दिया जाता, तो दूसरी लहर में आई तबाही को कम किया जा सकता था।
- पांचवा सबक सरकार की सही राजकोषीय सहायता से मिलता है। मुफ्त राशन और ग्रामीण रोजगार गांरटी योजना ने त्रासदी को काफी नियंत्रण में रखा। वित्तीय तनाव के इस दौर में क्रेडिट और तरलता की उपलब्धता ने नौकरियों को बचाए रखा।
हमारी शिक्षा प्रणाली की विफलता का सच सामने आ गया। ऑनलाइन शिक्षा की मार उन गरीब बच्चों पर पड़ी, जिनके पास स्मार्टफोन या इंटरनेट नहीं था। भारत की शिक्षा में मामूली निवेश के साथ तकनीकी बुनियादी ढांचे को उन्नत करना संभव है, ताकि सबसे गरीब बच्चे को भी विश्व स्तरीय शिक्षा दी जा सके।
इस त्रासदी ने हमारी वैचारिक मान्यताओं का भी पर्दाफाश किया है। लाइसेंस राज ने हमारी केंद्रीय योजना पर सवाल खड़ा कर दिया है। 1991 के सुधारों के बाद से सुई की दिशा दक्षिणपंथी हो गई थी, लेकिन कोविड ने हमें याद दिलाया कि हमें कमजोरों की रक्षा भी करनी है।
कुल मिलाकर मुफ्त बाजार और केंद्रीय योजनाओं का अपना स्थान है। साथ ही हमें अपनी समस्याओं के लिए व्यक्तिवादी और सामूहिक समाधान, दोनों की आवश्यकता है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित गुरचरण दास के लेख पर आधारित। 2 अप्रैल, 2022