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मध्यस्थता विधेयक
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मध्यस्थता विधेयक में यह व्यवस्था की गई कि न्यायालय में मामला दाखिल करने से पहले दोनों पक्षों के बीच बातचीत के माध्यम से सुलह कराने की अनिवार्य रूप से कोशिश की जाए। सन् 2021 में इस विधेयक को पहली बार राज्यसभा में प्रस्तुत किया गया था, जहाँ बहस के बाद उसे संसद की स्थायी समिति को विचार करने के लिये भेज दिया गया था। अब संसद की स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है, जिसे केन्द्रीय मंत्रिमंडल ने अपनी स्वीकृति दे दी है। अब इसके जल्दी ही कानून बनने की आशा है।
इस विधेयक का मूल उद्देश्य हमारी न्यायिक प्रणाली पर लगातार मामलों के बढ़ते जा रहे बोझ को कम करना है। अनुमान है कि वर्तमान में लगभग साढ़े चार करोड़ मामले न्यायालयों में लंबित हैं। इनमें से नब्बे प्रतिशत मामले जिला एवं तहसील स्तरों के हैं। ऐसी गंभीर स्थिति को देखने के बाद स्वयं उच्चतम न्यायालय ने सन् 2020 में एक पैनल का गठन करके इस पर कानून का स्वरूप निर्धारित करने के बाद उसे सरकार को सौंपा था।
तीन महत्वपूर्ण विशेषताएं –
(1) परस्पर सहमति के बाद जो भी निर्णय लिया जायेगा, उसके खिलाफ याचिका दायर नहीं की जा सकेगी।
(2) इसके अंतर्गत केवल सिविल एवं वाणिज्यिक विवादों को ही सुलझाया जा सकेगा।
(3) यह व्यवस्था की गई कि न्यायालय में केस दायर करने से पहले मध्यस्थता की कम से कम दो बार कोशिश की जाना अनिवार्य होगा। इसके लिये अधिकतम 180 दिन रखे गये हैं। विशेष मामलों में इसे 180 दिनों के लिये और बढ़ाया जा सकेगा।
(4) मध्यस्थता के द्वारा की गई व्यवस्थाओं को न्यायालयों की प्रक्रिया की तुलना में अधिक लचीला रखा गया है।
मुख्य आपत्तियां –
(1) संसदीय समिति ने अपनी सिफारिश में कहा है कि केस दायर करने से पहले अनिवार्य रूप से मध्यस्थता की बात की गई है, उस पर फिर से विचार किया जाना चाहिये। समिति की चिन्ता है कि इसका सहारा लेकर कोई भी एक पक्ष मामले में देरी कर सकता है।
(2) इस विधेयक में सरकार के साथ संबंधित विवादों को बाहर रखा गया है। जबकि लंबित मामलों में सबसे अधिक संख्या सरकार के विरूद्ध मामलों की ही है। ऐसे में इस विधेयक का मूल उद्देश्य ही कमजोर पड़ जाता है।
(3) ‘‘टाइम्स ऑफ इंडिया’’ ने अपने संपादकीय में सलाह दी है कि इस विधेयक को सिंगापुर अभिसमय (कंवेंशन) के अनुरूप रखना चाहिये, जिसमें सीमा-पार के विवादों को भी सुलझाने की व्यवस्था है। ऐसा करने से भारतीयों को काफी लाभ मिल सकता है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 21 जुलाई, 2023