मध्य एशिया में भारत की नाजुक स्थिति
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भारत और मध्य-एशिया के संबंधों की एक लंबी परंपरा रही है। ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और व्यापारिक दृष्टि से दोनों ही क्षेत्र काफी घुले-मिले रहे हैं। वाली ही में हुए अफगानिस्तान के सत्ता परिवर्तन के साथ ही इस क्षेत्र से संबंध रखना, भारत के लिए चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है।
सेंट्रल एशियन रिपब्लिक्स के नाम से जाने वाले संगठन की हाल ही में हुई बैठक में कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए हैं। इनमें सबसे प्रमुख थल मार्ग से किए जाने वाले व्यापार से संबंधित है।
कुछ मुख्य बिंदु –
- कजाकिस्तान से भारत को ऊर्जा निर्यात पर 2 अरब डॉलर की मामूली रकम का निवेश किया गया है। जबकि चीन के रोड-बेल्ट इनिशिएटिव के माध्यम से व्यापार का आंकड़ा 41 अरब डॉलर पार कर चुका है।
- पाकिस्तान ने पारगमन व्यापार के लिए भारत को लगभग मना कर दिया है। इसके विकल्प के रूप में ईरान के चाबहार बंदरगाह को मार्ग बनाया जाना चाहिए। इसके लिए भारत को वहां की उत्तरी सीमाओं पर रेल और सडक मार्गों में अधिक निवेश करना होगा। ईरान पर लगाए गए अनेक अमेरिकी प्रतिबंधों के कारण भारत ऐसा करने में संकोच कर रहा है।
- अब्बास बंदरगाह के माध्यम से रूस-ईरान-अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे का उपयोग करना एक विकल्प हो सकता है। लेकिन यह पूरी तरह से चालू नहीं है। और दो देश (उज्बेकिस्तान- तुर्कमेनिस्तान) इसके सदस्य भी नहीं हैं।
- पाकिस्तान के साथ तनाव को देखते हुए भारत ने टीएपीआई पाइपलाइन योजना से पैर खींच लिए हैं।
किए जाने वाले प्रयास –
- अफगानिस्तान और चाबहार पर संयुक्त कार्य समूहों की स्थापना।
- शैक्षिक एवं सांस्कृतिक अवसरों के लिए संरचित जुड़ाव बढ़ाना।
- व्यापारिक मुद्दे पर संस्थागत आदान प्रदान को समय रहते तेज करना।
इस पूरे क्षेत्र में जहाँ रूस एक अच्छा रणनीतिक खिलाड़ी है, वहीं विकास और बुनियादी ढांचे खड़ा करने में चीन सबसे बड़ा भागीदार है। पाकिस्तान ने ग्वादर और कराची में व्यापार की पेशकश करते हुए पारगमन व्यापार समझौतों के साथ सीएआरएस तक अपनी पहुंच बढ़ा दी है। इन परिवर्तनों के साथ कदम मिलाते हुए, भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि संबंधों का भविष्य चोटिल न हो।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 29 जनवरी, 2022