लोकतांत्रिक विकास का अगला कदम

Afeias
20 Sep 2021
A+ A-

Date:20-09-21

To Download Click Here.

एक लोकतांत्रिक राष्ट्र या कोई भी राष्ट्र संविधान और कानून से संरचित होता है। राष्ट्र के शासन में नागरिकों की भागीदारी की सक्रियता ही लोकतांत्रिक राष्ट्रों को सत्तावादी राष्ट्रों से अलग करती है। किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में, नागरिक नीतियों और कानूनों को आकार देने में प्रभावी रूप से भाग लेते हैं। लोकतांत्रिक संविधान नई नीतियों को आकार देने और कानून पारित करने के लिए जनप्रतिनिधियों को विधानसभा जैसा मंच प्रदान करते हैं।

लोकतंत्र की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए इन मंचों पर खुले दिमाग से विचार-विमर्श करना आवश्यक है। प्रणालीगत समस्याओं के अच्छे समाधान खोजने के लिए भी यह आवश्यक है। जब ये मंच पक्षपातपूर्ण राजनीति के कक्ष बन जाते हैंए तो वे जलवायु परिवर्तन, परंपरागत असमानताओं, बढ़ती आर्थिक असमानताओं और भीतरी असंतोष के साथ पनप रही हिंसा जैसी समस्याओं का समाधान नहीं खोज पाते हैं। इस मामले में भारत के अलावा अन्य लोकतंत्रों की स्थिति भी कोई बहुत अच्छी नहीं है। जहाँ अमेरिकी कांग्रेस में दलीय राजनीति के दांवपेंच चल रहे हैं, वहीं कई यूरोपीय लोकतंत्रों के नागरिक अपने राजनीतिक दलों के प्रदर्शन से निराश हैं।

एक लोकतंत्र की सफलता के लिए संविधानए चुनाव और विधानसभाएं ही पर्याप्त नहीं होते। बल्कि निर्वाचित सदनों के बाहर और चुनाव के बीच होने वाले कार्यकलापों में ही लोकतंत्र की सांसे बसती हैं। अलग-अलग राजनीतिक गुटों से संबंध रखने वाले, विभिन्न धर्मों का पालन करने वाले तथा अलग-अलग ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से आए लोगों का एक-दूसरे के साथ सहनशीलता के साथ रहना ही लोकतंत्र का वास्तविक स्वरूप है। वर्तमान में, स्वस्थ लोकतंत्रों को सबसे ज्यादा जरूरत स्वयं नागरिकों के बीच लोकतांत्रिक विचार-विमर्श की प्रक्रियाओं की है।

बढ़ती दरारें

अफसोस की बात है कि हमारे देश में शीर्ष संस्थानों से लेकर जमीनी स्तर तक विभाजित करने वाली दरारें चौड़ी होती जा रही हैं। लोकतंत्र की बहुसंख्यक चुनाव प्रणाली इन विभाजनों को सख्त कर देगी। आज देश में ऐसी मजबूत प्रक्रियाओं की तत्काल आवश्यकता है, जो हमारे राष्ट्रीय ताने-बाने के बिखराव को बचा सके।

आज का मीडिया भी पक्षपातपूर्ण रूप से विभाजित है, और सोशल मीडिया इस विभाजन को गहरा कर रहा है।

नया कदम

यूरोपियन विश्वविद्यालय के निकोलाइडिस कहते हैं, “समय-समय पर होने वाले चुनावों या जनमत संग्रह से कहीं अधिक शासित की शक्ति होती है। लोकतंत्र की पकड़ को मजबूत करने की प्रक्रिया वैसी ही बनी हुई है, जैसी 200 वर्ष पूर्व थी। इस प्रक्रिया में केवल मताधिकार के विस्तार पर बल दिया जाता रहा है। परंतु अब वह समय है, जिसमें न केवल मतदान के अधिकार से निर्वाचक अपना मताधिकार व्यक्त करे, बल्कि उसे राजनीतिक प्रक्रिया में व्यापक समावेश के माध्यम से व्यक्त करना चाहिए।”

यूरोप के नागरिकों ने ऐसी ही स्थितियों में एक जन आंदोलन करके यूरोपियन सिटीजन असेंबली बनाई थी। इस असेंबली का उद्देश्य, नागरिकों की भागीदारी और विचार-विमर्श के लिए एक स्थायी अंतरराष्ट्रीय मंच देना था। लेकिन लोगों को एक साथ एक कमरे में बैठा देने से विचारशील विचार-विमर्श के लिए स्थितियां नहीं बनती हैं। इन बैठकों को उचित और पेशेवर रूप से ऐसा बनाया जाना चाहिए कि नई अंतर्दृष्टि उभरने के लिए उचित वातावरण बन सके। यह तभी होगा, जब कमरे में बैठे सभी महानुभाव सभी बिंदुओं को सुनने में सक्षम हों।

समय आ गया है, जब लोग शांत होकर सुनने की सीख लें। केवल अच्छा बोलना, संवाद करना और बहस करना ही पर्याप्त नहीं होता है। भारत की शक्ति के पुनर्जागरण के लिए प्रतिभागियों के विचार-विमर्श को प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित अरूण मायरा के लेख पर आधारित। 1 सितंबर, 2021

Subscribe Our Newsletter