क्या संसद को संविधान की ‘मूल संरचना’ में संशोधन का अधिकार है?

Afeias
07 Feb 2023
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हाल ही में उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड ने उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय की आलोचना की है, जिसमें न्यायालय ने सरकार के न्यायाधीशों की नियुक्ति के वैकल्पिक तरीके से प्रस्ताव को नकार दिया है। न्यायालय का कहना है कि संसद को संविधान के ‘मूल ढांचे’ में संशोधन का अधिकार नहीं है। उपराष्ट्रपति इससे सहमत नहीं हैं। इस विवाद की सत्यता को जानने के लिए हमें कुछ महत्वपूर्ण मामलों पर एक दृष्टि डाल लेनी चाहिए –

  • अप्रैल, 1973 में सर्वोच्च न्यायालय की 13 न्यायाधीशों की पीठ ने बहुमत से एक दूरगामी फैसला सुनाया था। इसे केशवानंद भारती मामले के रूप में जाना जाता है। इसने स्थापित किया कि संविधान में संशोधन के लिए संसद को मुक्त अधिकार नहीं है। कोई भी संशोधन संविधान की ‘मूल संरचना’ का उल्लंघन नहीं कर सकता है।
  • इस विवाद से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 368 में संसद के संशोधन के अधिकार पर स्पष्टता नहीं है।
  • सज्जन सिंह बनाम पंजाब सरकार और गोलकनाथ मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने कहा कि सरकार किसी संशोधन कानून से मौलिक अधिकारों को कम नहीं कर सकती है।
  • उपराष्ट्रपति ने 2015 के उच्चतम न्यायालय के फैसले का संज्ञान लिया है। इस मामले में भी ‘मूल संरचना’ सिद्धांत का सहारा लेकर न्यायालय ने एनजेएसी के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। समस्या यह है कि उच्चतम न्यायालय ‘मूल संरचना’ सिद्धांत की स्थिति के अनुसार मनमानी व्याख्या कर लेता है। इसका सहारा लेकर न्यायापालिका विधायिका और कार्यपालिका के अधिकारों में दखल अंदाजी करती है। इसी से समस्या उत्पन्न हो जाती है।

इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि 1973 का उच्चतम न्यायालय का ‘मूल संरचना’ सिद्धांत सही नहीं है। यह सत्य है कि न्यायिक कार्यप्रणाली के अन्य पहलुओं में परिवर्तन की आवश्यकता है, जिस पर काम किया जाना चाहिए।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 13 जनवरी, 2023