जातीय जनगणना और जातीय पहचान

Afeias
30 May 2025
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विक्टर ह्यूगो का एक प्रसिद्ध  कथन है – ‘उस विचार को कोई नहीं रोक सकता, जिसका वक्त आ चुका हो।’ हम इस कथन के राजनीतिक प्रभाव को जानते हैं और वह यह कि धरती पर कोई ताकत राजनेताओं को किसी विचार को आगे बढ़ाने से रोक नहीं सकती; फिर चाहे वह कितना भी संदिग्ध क्यों न हो। इसका पहला उदाहरण है-चुनावी रेवड़िया और दूसरा उदाहरण है- जातिगत जनगणना।

जातिगत जनगणना पर कुछ विचारणीय बिंदु –

  • सरकार का यह सोचना है कि इससे अन्य पिछड़ा वर्ग का समर्थन मिलेगा। अन्य पिछड़ा वर्ग यह सोचता है कि उनकी संख्या बढ़ने के कारण उन्हें ज्यादा जातीय कोटा मिलेगा।
  • कांग्रेस पार्टी इसका समर्थन कर रही है, क्योंकि पिछले चुनाव में छोटी-छोटी जातियों को हिंदुत्व की एक छतरी में लाने की सोशल इंजीनियरिंग के कारण ही भाजपा जीत पाई थी।
  • इंदिरा साहनी मामले में 49% आरक्षण की बात अब इतिहास बनकर ही रह जायेगी, क्योंकि जनगणना के आंकड़े सामने आने के बाद शैक्षणिक और रोजगार संबंधी आरक्षण बढ़ाने की मांग उठेगी। हालांकि अभी भी ये आंकड़ा 60% से थोड़ा ही कम है।
  • हमें अन्य पिछड़ा वर्ग तथा अनुसूचित जाति में दो या तीन उपकोटे देखने को मिल सकते हैं।
  • सरकारी क्षेत्र में नौकरी की कमियों के कारण हो सकता है कि निजी क्षेत्रों में आरक्षण दिया जाए। छोटी कंपनियों को इससे राहत दी जा सकती है। इससे कंपनियां अपना काम एआई से कराना शुरू कर सकती हैं।
  • अब आंबेडकर का विचार; जो जाति के विनाश की बात करता है, विफल हो चुका है, क्योंकि हर प्रकार का सुधार अब आपके जन्म से तय होगा। जाति के जाल से बचने का केवल एक यही तरीका रह जाएगा कि ऐसा छोटा कारोबार किया जाए, जिसमें आरक्षण की जरूरत ही न हो।
  • यूरोप के ईसाई ग्रंथ सामाजिक संगठन और नैतिकता को परिभाषित करते हैं। इसी समर्थन की तलाश अंग्रेजों ने हमारे धर्मग्रंथों में की और इसे जाति व्यवस्था में पाया।
  • 1931 में ब्रिटिशर्स ने आखिरी बार जब देशव्यापी जाति सर्वेक्षण कराया था, तब जाति को हिंदू धर्मग्रंथों में उल्लिखित चार वर्णों में शामिल करने की कोशिश की थी।
  • जातिगत सर्वेक्षण में यदि कोई जाति अनुमान से कम निकली, तो कर्नाटक के वोक्कालिगा और लिंगायत जैसी स्थिति बन सकती है। हमने अनुसूचित जाति में मैतेई समुदाय को शामिल करने के अदालती निर्णय का परिणाम भी देखा है। अतः हमें गृहयुद्ध जैसी स्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए।
  • जाति एक सामाजिक और सामूहिक पहचान है। यही कारण है कि यह आज भी जारी है। जाति को सामाजिक अन्याय से जोड़ा गया और अन्याय को न्याय में बदलने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई।
  • जाति पहचान उतनी ही महत्वपूर्ण है, जितना विभिन्न सामाजिक समूहों का आर्थिक लाभ। पर यह पहचान वैश्वीकरण, शहरीकरण और तकनीकि स्वचालन के कारण बहुत कम हुई है।
  • आज कथित निचली जातियां अपनी पहचान को लेकर शर्मिंदा नहीं होतीं। वे स्वयं को औरों के बराबर मानते हैं। दलितों की व्यापक पहचान भी उन्हें एक छत के नीचे नहीं ला सकती।

जातिगत जनगणना शायद अनापेक्षित परिणामों वाली हो; जैसे- नोटबंदी के कारण डिजिटल लेन-देन बढ़ा। हमें आशावादी होना चाहिए कि जनगणना से समझदारी नष्ट नहीं होगी।

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