जनजातियों को सम्मान और समानता की जरूरत है
To Download Click Here.
हमारे देश के मूल निवासियों के साथ स्वतंत्र भारत में बहुत सम्मान जनक व्यवहार नहीं किया गया है। आज एक आदिवासी महिला के राष्ट्रपति बन जाने के बाद आदिवासी उन कानूनों के निशाने पर हैं, जिनसे ब्रिटिश राज के पूर्वाग्रह की बू आती है। एक नजर उन कानूनों पर, जो आदिवासियों को ‘असभ्य जाति’ मानते हैं –
- स्वतंत्रता पूर्व बनाए गए ऐसे कई कानून जारी हैं, जो आदिवासियों के प्रति अलग तरह का पूर्वाग्रह प्रदर्शित करते हैं। इसका एक उदाहरण संथाल परगना अधिनियम, 1855 है। यह अधिनियम ईस्ट इंडिया कंपनी के विरोध में हुई संथालों की प्रतिक्रिया के खिलाफ बनाया गया था। मोटे तौर पर देखें, तो यह अधिनियम संथालों को इतना असभ्य मानता है कि उन्हें कानून के माध्यम से शासित करने योग्य नहीं समझता।
- दूसरा कानून स्वतंत्रता पश्चात बनाया गया था। सन् 1952 में हैबीच्युल ऑफेंडर्स मॉडल बिल या आदतन अपराधी अधिनियम लाया गया, जिसने 1871 के क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट या आपराधिक जनजाति अधिनियम का स्थान ले लिया। इस कानून में लगभग 200 आदिवासी समुदायों को आदतन अपराधिकयों के रूप में वर्गीकृत करके उनका अपराधीकरण कर दिया गया। इस लेबल की वजह से उनके आने-जाने पर भी रोक लगा दी गई। समूहों के वयस्क पुरूष-सदस्यों को स्थानीय पुलिस को साप्ताहिक रिपोर्ट करने के लिए मजबूर किया गया।
- सांस्कृतिक स्वायत्तता की आड़ में आदिमवाद का औपनिवेशिक विचार जारी रखा गया है। संविधान की पांचवी और छठी अनुसूचियां आदिवासी क्षेत्रों के लिए विशेष प्रावधानों का एक सेट तैयार करती हैं। इसके अंतर्गत इन अनुसूचित क्षेत्रों के लिए राज्यपालों को अधिकार दिया गया है कि वे केंद्र या राज्यों के कानूनों के क्रियान्वयन को संशोधित कर सकें या रोक सकें।
भारत सरकार अधिनियम,1919 के अनुसार ये क्षेत्र ‘आमतौर पर और वास्तव में पिछड़े क्षेत्र’ थे और 1935 के तहत ‘आंशिक और पूर्ण रूप से बहिष्कृत क्षेत्र’ माने गए।
चिंताजनक यह है कि संविधान की पांचवी और छठवीं अनुसूचियों की भाषा जनजातियों के लिए बनाए गए औपनिवेशिक कानूनों का संरक्षण करती हुई लगती है। जनजातियों की ‘सुरक्षा’ और उनकी ‘मदद’ जैसे शब्द, इन जनजातियों को हमेशा अपवाद बनाए रखने की ओर इशारा करते हैं। इसमें समानता और सम्मान वाले भाव का अभाव लगता है।
अगर जनजातियों को वाकई हम समान स्थान देकर मुख्य धारा में लाना चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें औपनिवेशिक कानूनों को समाप्त करके, औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त होना होगा।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित अध्र्य सेनगुप्ता और आदित्य प्रसन्ना भट्टाचार्य के लेख पर आधारित। 16 दिसंबर, 2022