जलवायु लचीलेपन में सुधार के लिए क्षेत्र विशिष्ट योजनाओं की आवश्यकता
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भारत एक विशाल देश है। यहाँ क्षेत्रीय भिन्नताएं हैं। जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से भी क्षेत्रवार भिन्नताएं हैं। जलवायु परिवर्तन की दृष्टि से भी क्षेत्रवार भिन्नताएं हैं। भारत के मौसम विभाग ने हाल ही में अपनी स्थापना के 150वें वर्ष में प्रवेश किया है। औपनिवेशिक काल में इसकी स्थापना बड़े ही व्यावहारिक और वैज्ञानिक आधारों पर की गई थी। फसलों पर मानसून के प्रभाव को क्षेत्रवार ढंग से समझने में इसकी बड़ी भूमिका हुआ करती थी, क्योंकि ब्रिटिश प्रशासन को राजस्व की बहुत चिंता रहती थी। तब से लेकर अब तक के वर्षों में, मौसम विभाग ने मानसून के पूर्वानुमानों को रेखांकित करने के लिए आंकड़ों का विशाल भंडार एकत्र किया है।
कुछ बिंदु –
- ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद् के शोधकर्ता 1982-2022 तक के ऐसे ही कुछ डेटा की समीक्षा कर रहे हैं। यह शोध तहसील स्तर पर मानसून के ट्रेंड से संबंधित है।
- इससे पता चलता है कि मानसूनी वर्षा लगभग 55% भारत यानि 4,400 तहसीलों में बढ़ रही है।
- लगभग 11% वर्षा कम हो रही है। इन तहसीलों में से 68% में मानसूनी चार महीनों में वर्षा कम हुई है। जबकि 87% तहसीलों में जून और जुलाई में ही वर्षा कम हुई है। इससे खरीफ की बुआई पर बुरा प्रभाव पड़ा है।
- कम वर्षा वाली अधिकांश तहसीलें सिंधु-गंगा के मैदानी इलाकों में हैं। ये वे क्षेत्र हैं, जो देश के कृषि उत्पादन में आधे से अधिक का योगदान देते हैं।
- शोध से यह भी पता चलता है कि भारत के 30% से अधिक जिलों में कई वर्षों तक कम, और 38% में अत्यधिक वर्षा हुई है।
- राजस्थान, गुजरात, मध्य महाराष्ट्र और तमिलनाडु के कुछ भागों में सामान्यतः सूखी रहने वाली तहसीलों में अपेक्षाकृत अधिक वर्षा होने लगी है।
- अक्टूबर, नवंबर और दिसंबर के महीनों में आने वाले पूर्वोत्तर मानसून में भी परिवर्तन देखे जा रहे हैं। यह मुख्यतः प्रायद्वीपीय भारत को प्रभावित करता है। पिछले एक दशक में पूर्वोत्तर मानसूनी वर्षा 10% बढ़ गई है।
- भारत की 76% वार्षिक मानसूनी वर्षा दक्षिण-पश्चिम मानसून और 11% वर्षा पूर्वोत्तर मानसून के कारण होती है।
भारत के मानसून के लंबे समय तक शुष्क रहने की संभावना बढ़ती जा रही है। बीच-बीच में मूसलाधार वर्षा के टुकड़ों के पीछे की प्राकृतिक परिवर्तनशीलता और ग्लोबल वार्मिंग के कारण, अभी अनुसंधान का विषय बने हुए हैं। ब्रिटिश काल में, राजस्व पर पड़ने वाले मानसून के प्रभाव की समीक्षा आज भी प्रासंगिक है। इसे जलवायु लचीलेपन के अनुसार क्षेत्र-विशेष में आवश्यक निधि और संसाधनों को उपलब्ध कराने के लिए उपयोग में लाया जाना चाहिए। यह सरकार का सराहनीय कदम हो सकता है।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 20 जनवरी, 2024