इतिहास के पाठ्यक्रम में मिथकों को शामिल नहीं करना चाहिए
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हाल ही में एनसीईआरटी पैनल का एक विचार सामने आया है। इसमें उन्होंने स्कूली बच्चों को इतिहास के पाठ्यक्रम में ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ जैसे महाकाव्यों को पढ़ाए जाने की बात कही है। ऐसा करना उचित है या अनुचित?
कुछ बिंदु –
- ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ मिथक क्लासिकल काव्यग्रंथ हैं। जबकि इतिहास तारीखों में दर्ज साम्राज्यों और लड़ाइयों का लेखा-जोखा है। इन दोनों को आपस में मिलाने का प्रतिकूल परिणाम हो सकता है।
- यह सत्य है कि हम भारतीय मिथक की शाश्वत सच्चाइयों में उलझे हुए हैं। अधिकांश भारतीय ऐतिहासिक घटनाओं को याद नहीं कर सकते है। लेकिन महाकाव्यों का स्रोत बनी कई कहानियों से स्वयं को जोड़ते हैं। उनसे जीवन और नैतिकता के बारे में सीखते हैं। जबकि इतिहास का औपचारिेक लेखन और अध्ययन एक आवेग है, जो पश्चिम में उत्पन्न हुआ है। उनके अनुसार अतीत की समीक्षा करके उससे सीखा जाना चाहिए। इसके लिए उसे समझना जरूरी है।
- भारत ने इतिहास के प्रति हमेशा ही उदासीनता दिखाई है। जबकि मिथक में हमने एक अलग क्षितिज देखा है। इस दृष्टिकोण ने हमें अतीत की कैद में न रहने में मदद की है। मिथक की शाश्वत कहानियों ने हमारी आत्मा को पोषित किया है। जबकि पश्चिमी देशों को देखकर ऐसा लगता है कि इतिहास पर ध्यान केंद्रित करने से उनकी आपसी शिकायतें बढ़ी हैं। परिपक्व समझ के बजाय, हिंसा को बढ़ावा मिला है।
- मिथकों से जुड़े रहने के कारण हम अपने दिमाग को सत्ता और प्रतिशोध के चक्रों पर केंद्रित रखने के बजाय, स्वयं के क्षण के प्रति उत्तरदायी रहने में सफल रहे हैं। पूर्ण तथ्यों को सीधे-सीधे बताने के बजाय, हम कई दृष्टिकोणों, संदर्भों और सापेक्ष सत्यों के साथ सहज हैं। इसने हमें एक विविध, मिलनसार राष्ट्र के रूप में विकसित होने में मदद की है। जबकि इतिहास हमें सीधे-सीधे विभाजित करता है।
यही कारण है कि इतिहास के साथ मिथक का अध्ययन भ्रमकारी हो सकता है। अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाए रखने के लिए इन्हें अलग ही रखा जाना चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 24 नवंबर, 2023