
हिमालयी आपदाओं के प्रभावों को नियंत्रित किया जाना चाहिए
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हाल ही में उत्तराखंड के माना गांव में हिमस्खलन के बाद बर्फ में कई श्रमिक दब गए थे। इनमें से 23 को बचा लिया गया, परंतु आठ श्रमिकों की मृत्यु हो गई। हिमालयी राज्यों में ऐसा हिमस्खलन असामान्य नहीं है। तो क्या मौतों का कारण निर्माण योजनाओं की दूरदर्शता और सुरक्षा उपायों में कमी है?
कुछ बिंदु –
- हिमालयी राज्यों के सीमा क्षेत्रों में शीतकालीन प्रवास की परंपरा रही है। नवंबर में बद्रीनाथ मंदिर के बंद होने के साथ ही आसपास के गांवों का पलायन निचले क्षेत्रों में होता है। यहाँ के निवासी अप्रैल या मई में मंदिर के फिर से खुलने पर ही लौटते हैं।
- सामान्य ज्ञान यह कहता है कि वर्ष के इस समय में यहाँ सड़कें बनाने जैसे अधिक श्रमिकों की मांग वाले निर्माण कार्यों को टाला जाना चाहिए।
- विडंबना यह है कि एक बार जब आपदा आती है, तो बचाव अभियान पर ध्यान केंद्रित हो जाता है। और जब वे समाप्त हो जाते हैं, तो निवारक उपायों पर बहुत कम या विचार ही नहीं किया जाता है।
- हिमस्खलन की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। लेकिन ऐसे कंटेनरों को डिजाइन करने के लिए कदम उठाए जा सकते हैं, जो रहने के लिए सुरक्षित हों, और बचने की संभावना का प्रतिशत बढ़ा सकें। बम शेल्टर और अंटार्कटिका में डिजाइन किए गए अनुसंधान केंद्र इसके उदाहरण है।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 8 मार्च, 2025