हिजाब मामले में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मूल्यों की अवहेलना
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कर्नाटक राज्य में हिजाब पर प्रतिबंध को लेकर दिए गए उच्च न्यायालय के निर्णय से स्वतंत्रता, समानता और भ्रातत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों को बड़ा झटका लगा है। कुछ बिंदुओं के आधार पर इसे विस्तार से समझा जा सकता है।
- निर्णय के पक्ष में न्यायालय का उदाहरण प्रस्तुत करना –
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- न्यायालय का मानना है कि हिजाब पहनना इस्लाम को मानने के लिए आवश्यक नहीं है। इसलिए याचिकाकर्ताओं की धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार कहीं बाधित नहीं होता है।
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- अभिव्यक्ति और निजता की स्वतंत्रता का अधिकार ऐसा नहीं है, जिसका दावा एक कक्षा के भीतर किया जा सके।
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- इसके अनुसार सरकार का आदेश अपने आप में हिजाब के उपयोग पर प्रतिबंध नहीं लगाता है। चूंकि यह तटस्थ है, इसलिए इसे मुस्लिम छात्राओं के साथ भेदभाव की दृष्टि से नहीं देखा जा सकता।
न्यायालय ने हिजाब पहनने को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार अस्वीकार करने के लिए ढेरों उदाहरण प्रस्तुत कर दिए। ये उदाहरण केवल “आवश्यक धार्मिक प्रथाओं’’ को संवैधानिक संरक्षण देने की ओर इशारा करते हैं। अंततः न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला है कि इस्लाम, हिजाब पहनना अनिवार्य नहीं करता है। एक धर्मनिरपेक्ष न्यायालय के लिए यह एक असाधारण प्रकार का शोध है।
- विकल्प की स्वतंत्रता और राज्य की कार्रवाई –
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- “आवश्यक धार्मिक प्रथाओं’’ के सिद्धांत का आह्वान किए जाने वाले मामलों के विपरीत, इस मामले में एक समुदाय विशेष के अधिकारों के साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता बाधित होने की बात नहीं है। बल्कि इस मामले में राज्य की कार्रवाई से स्वतंत्र विकल्प के प्रयोग को बाधित किया गया।
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- याचिकाकर्ताओं का तर्क था कि उन्होंने अंतरात्मा की आवाज के अनुसरण में हिजाब पहना था। संविधान का अनुच्छेद 25, सभी व्यक्तियों को धर्म को मानने, उस पर चलने और प्रचार करने के समान अधिकार के साथ “अंतरात्मा की स्वतंत्रता’’ की गारंटी देता है। वकील ने 1986 के बिजोय इमानुअल मामले का भी संदर्भ दिया था, जिसमें येहोवा समूह के राष्ट्रगान में भाग न लेने की स्वतंत्रता की रक्षा की गई थी।
न्यायालय ने इसे विवेक के आधार पर तय किया गया मामला बताते हुए स्पष्ट किया कि इसका धार्मिक विश्वास से कोई संबंध नहीं है।
- कक्षाओं जैसे सार्वजनिक स्थानों पर न्यायालय –
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- याचिकाकर्ताओं का तीसरा तर्क था कि वे केवल अभिव्यक्ति और निजता की स्वतंत्रता के अधिकारों से संबंधित पहचान के रूप में हिजाब को पहन रहे हैं।
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- न्यायालय ने इसका विरोध करते हुए कहा है कि कक्षाएं “स्तरीय सार्वजनिक स्थान’’ हैं, जहाँ व्यक्तिगत अधिकारों को “सामान्य अनुशासन और मर्यादा’’ के “नुकसान’’ पर ऊपर नहीं रखा जा सकता। इस टिप्पणी का मतलब स्पष्ट ही नहीं हो सका है।
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- इस टिप्पणी में न्यायालय, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को आनुपातिकता के आधार पर सीमित किए जाने की समीक्षा करने में विफल रहा है।
- एक समझौते की व्यवस्था –
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- याचिकाकर्ताओं का दावा था कि कई केंद्रीय विद्यालयों ने अपनी निर्धारित यूनीफॉर्म के भीतर ही हिजाब की अनुमति प्रदान की है।
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- न्यायालय ने इसपर विचार करने का अनुरोध खारिज करते हुए टिप्पणी की है कि इस प्रकार की व्यवस्था से यूनिफॉर्म का उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा।
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- यदि ऐसा है, तो कक्षाओं में आस्था से जुड़े चिन्हों की हर प्रदर्शनी को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। केवल हिजाब पर प्रतिबंध लगाने को मुस्लिम महिलाओं के प्रति भेदभाव के रूप में ही देखा जा सकता है।
आश्चर्य की बात यह है कि न्यायालय का निर्णय बार-बार संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता का उल्लेख करता है। याचिकाकर्ता भी इसी की रक्षा की मांग करते रहे। परंतु वास्तविक स्तर पर यह उन्हें प्रदान नहीं की गई।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित सुतीर्थ पार्थसारथि के लेख पर आधारित। 17 मार्च, 2022