गांधी को नए दृष्टिकोण से भी देखा जाए

Afeias
01 Dec 2021
A+ A-

To Download Click Here.

गांधी को सामान्यतः एक गरीबप्रेमी आध्यात्मिक व्यक्ति के रूप में देखा जाता रहा है। एक ऐसा व्यक्तिय जो तथाकथित कट्टर समाज से दूर या फिर पिछड़े विचारों का समर्थक रहा है। अब वह समय है, जब हमें अपने रवैये को बदलते हुए, एक नए दृष्टिकोण के साथ गांधी को बुद्धिजीवी के रूप में देखना चाहिए। राजनीति विज्ञान की दुनिया में तो गांधी के योगदान को मान्यता दी जाती है, लेकिन आर्थिक क्षेत्र में उन्हें अक्सर एक उद्योग-विरोधी व्यक्ति के रूप में चिन्ह्ति किया जाता है।

वास्तव में गांधी को नासमझ उद्योगवाद से उपजी विसंगतियों का डर था। उनकी इस व्यापक विचार प्रक्रिया को नजरअंदाज कर दिया जाता है। राजनीतिक अर्थव्यवस्था और नैतिक दर्शन के बौद्धिक तत्वों में उनके योगदान को अनदेखा कर दिया जाता है।

गांधी को स्कॉटलैंड के प्रबुद्ध विद्वान एडम स्मिथ के योग्य समकक्ष और भागीदार के रूप में देखा जाना चाहिए। एडम स्मिथ एक नैतिक दार्शनिक थे। वे अर्थशास्त्र के जनक के रूप में जाने जाते हैं। गांधी को एक अन्य बौद्धिक दिग्गज अंग्रेजी कानूनी इतिहासकार एफ डब्ल्यू मेटलैण्ड के बराबर भी माना जा सकता है। गांधी को भले ही ‘भाष्यकारो’ या उपनिषदों और गीता के टीकाकारों में नहीं गिना जा सकता है, परंतु इन ग्रंथों की कभी-कभी विलक्षण पुनर्व्याख्या  के लिए उन्हें एक प्रथम श्रेणी का विचारक जरूर माना जा सकता है। इन सबके साथ, उनका स्वस्थ व्यावहारिक अनुभव व उन्हें गुजराती बनिया जड़ों से प्राप्त हुआ है। यह दूसरे अनुभववादी एडम स्मिथ की तरह ही बोलता है।

गांधी और स्मिथ व्यक्तिगत पहल के महान समर्थक थे। इसको उन्होंने सरकारों के हस्तक्षेप से अलग बचाकर रखा, और इसे धन सृजन के लिए आवश्यक माना था। गांधी के समय अनेक भारतीय घनघोर कंगाली का जीवन जी रहे थे, और गांधी के विचार में इससे बारह निकलने का रास्ता धन सृजन था। दोनों ही विद्वानों ने धन को साधन के रूप में देखा और धन के उपयोग के आसपास की नैतिक अनिवार्यताओं से चिंतित भी रहे।

धन के बारे में गांधी का दृष्टिकोण सीधे ईशावास्य उपनिषद् के प्रति उनके प्रेम की देन रहा है। अपने अद्वितीय उदार तरीके से उन्होंने मार्क और मैथ्यू की शिक्षा से भी प्रेरणा ली।

समकालीन विश्व में, बाजार पूंजीवाद के नैतिक आधार पर हो रहे हमलों के बीच गांधी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत पर विचार किया जाना चाहिए। बैरिस्टर गांधी ने ट्रस्टीशिप पर अपने कई विचार अंग्रेजी कानून परंपरा और “इक्विटी” के सिद्धांत से प्राप्त किए थे। ये सिद्धांत महाद्वीपीय कानूनी परंपराओं में अनुपस्थित हैं। अर्थशास्त्र में दो शताब्दियों से बनी हुई ‘एजेंसी समस्य’ के लिए भी ट्रस्टीशिप एक समाधान हो सकता है। पूंजीवाद के केंद्र में बनी नैतिक पहेली को संबोधित करने के लिए भी ट्रस्टीशिप का सहारा लिया जा सकता है। समाजवाद के विकल्प के रूप में संपत्तिहरण को उन्होंने फिर से परिभषित करने की मांग की। उन्होंने जिम्मेदारी के बजाय ट्रस्टीशिप या दान का इस्तेमाल किया। इसे महत्पपूर्ण दृष्टि से देखा जाना चाहिए, क्योंकि यह सतही नही था, बल्कि एक ऐसा बदलाव था, जो उदाहरण बन सकता है। गांधी की मौलिकता के लिए यह एक श्रद्धांजलि होगी। पूंजी श्रम गतिरोध से परे जाने वाले उपभोक्ता को तीसरे पक्ष के रूप में प्रस्तुत करके त्रिपक्षीय जुडाव और हितों के संतुलन का आग्रह करने वाले शुरूआती लोगों में से गांधी एक थे।

हितधारक पूंजीवाद (स्टेकहोल्डर कैपिटलिज्म) जैसे फैशनेबल सिद्धांतों के समर्थको को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि गांधी ने इसका भी अनुमान लगाया था। संसाधनों को एक पीढ़ी से दूसरी को हस्तांतरित करने की दृष्टि से भी ट्रस्टीशिप महत्वपूर्ण है। यह पर्यावरण की दृष्टि से भी प्रिय हो सकती है। गुजरात में तो वर्तमान और आने वाली पीढ़ी के कल्याण के लिए सीढ़ीनुमा कुएं जैसे जल संरक्षण साधन बनाए जाने की परंपरा चली आ रही है। वर्तमान युग के अमीरों को भी भविष्य की पीढ़ी के लिए ऐसा करना चाहिए। गांधी ने ऐसी प्रथाओं की सदैव ही प्रशंसा की है।

मानव पूंजी विकास और पहचान अर्थशास्त्र (आइडेंटिटी इकॉनॉमिक्स) के साथ गांधी का प्रयास व्यावहारिक अर्थशास्त्र (बिहेवियरल इकॉनॉमिक्स) का एक उप समूह कहा जा सकता है।

गांधी की कई विचित्र आदतों के लिए उनकी आलोचना की जा सकती है। इसमें विचित्र तरीके से किया जाने वाला महिलाओं का शोषण भी शामिल हो सकता है। लेकिन उन्हें नारीवादी अर्थशास्त्र के रक्षक के रूप में भी देखा जा सकता है। कुछ लोग उन पर जाति व्यवस्था के समर्थक होने का आरोप लगा सकते हैं। लेकिन उनके अर्थशास्त्र के लेंस का उपयोग करने से हमें उनके सिद्धांतो को अधिक बारीकी से पढ़ने में मदद मिल सकती है। अब समय आ गया है कि हम गांधी को केवल एक राष्ट्र के सौम्य पिता के रूप से परे एक बुद्धिजीवी के रूप में भी देखें।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित जयतीर्थ राव के लेख पर आधारित। 26 सितम्बर, 2021

Subscribe Our Newsletter