स्त्रियों की स्वतंत्रता को बाधित करता है लव जिहाद

Afeias
22 Dec 2020
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Date:22-12-20

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आधुनिक भारत में अंतरधार्मिक विवाह की बात कोई नई नहीं है। इसकी एक लंबी परंपरा रही है। मुस्लिम पुरूषों का हिंदू स्त्रियों से विवाह पहले भी हुआ करता है। ऐसा विवाह जब किन्हीं प्रतिष्ठित व्यक्तियों के बीच होता था, तो लोग रोमांचित अनुभव करते थे। लेकिन आम नागरिकों में इसे आसानी से स्वीकार नहीं किया जाता। अखिला बनाम हादिया के मामले में भी ऐसा ही हुआ। जब उसने एक मुस्लिम युवक से विवाह करके मुस्लिम धर्म अपनाना चाहा, तो सरकार के कानून और तथाकथित धर्मरक्षकों की सेना आड़े आ गई।

2018 में उच्चतम न्यायालय ने मामले की सुनवाई करते हुए स्पष्ट किया कि, ‘अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करना संविधान के अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग है।’

इसके बावजूद धर्म के बंधन तोड़कर विवाह करने वाले जोड़ों के परिणय को ‘लव जिहाद’ का नाम देकर आतंक की बलि चढ़ाया जा रहा है।

लव जिहाद का नारा लैंगिक रूप से तटस्थ सुनाई पड़ता है। परंतु वास्तव में यह स्त्रियों का विरोधी है, जो स्त्रियों की व्यक्तिगत और संस्थागत स्वतंत्रता को बाधित करता है। इसके समर्थक महिलाओं को एक बुद्धिहीन शिशु समान कोई वस्तु समझते हैं, जिन्हें उनके नियंत्रण में रहना चाहिए। वे इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं कि 21वीं सदी का यह मंत्र समाज में धर्म, जाति, समुदाय और लिंग की दीवारों को तोड़कर क्रांतिकारी बल की तरह काम कर रहा है या कर सकता है।

दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता को खत्म करने वाली आधिकारिक शक्तियां भी विवाह जैसे व्यक्गित मामलों में खतरनाक रूप से दखल देने लगी हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने इसको धर्म परिवर्तन का आधार मानते हुए इसके विरूद्ध कानून भी बना दिया है। भाजपा शासित अन्य राज्य भी इसी नक्शे कदम पर चलना चाह रहे हैं।

जहाँ तक मुस्लिम पुरूषों द्वारा हिंदू महिलाओं को बरगलाकर धर्म परिवर्तन कराने की सरकार की आशंका का सवाल है, तो उसके लिए पहले ही भारतीय दंड संहिता की धारा 420 विद्यमान है। इसके तहत धोखेबाजी और छल-कपट के विरूद्ध शिकायत दर्ज की जा सकती है।

दूसरे, सभी हिंदू-मुस्लिम विवाहों में धर्म परिवर्तन किया भी नहीं जाता है। स्पेशल मैरिज एक्ट के अंतर्गत कोई भी युगल, धर्म-परिर्वतन के बिना भी परिणय सूत्र में बंधकर आजीवन रह सकता है। इन कानूनों के रहते भी क्या अन्य किसी कानून की जरूरत है ?

उत्तर प्रदेश में हिंदू-मुस्लिम और उससे जुड़े धर्म-परिवर्तन के लिए युगल को जिला मजिस्ट्रेड और स्थानीय पुलिस को दो माह पूर्व सूचना देनी होती है। ये दो महिने प्रताड़ना के लिए उपयुक्त समझे जाते हैं। आतंकी मानसिकता रखने वाले परंपरावादी लोगों को इस प्रकार के विवाह रास नहीं आते। लेकिन स्वतंत्र भारत के संस्थापकों ने ऐसे विवाहों को समाज के विकास और लोकतंत्र के विकास के लिहाज से अच्छा माना था।

इंदिरा नेहरू के फिरोज गांधी से विवाह पर गांधीजी ने कहा था किए ‘ऐसे गठजोड़ हमारे समाज का भला करते हैं।’ अंबेडकर का भी मानना था, कि अंतर्जातीय विवाहों से जाति संबंधी पूर्वाग्रहों को तोड़ा जा सकेगा। भाजपा के शाहनवाज हुसैन और एम ए नकवी ने हिंदू महिलाओं से विवाह किया है।

यहाँ वास्वविक मुद्दा व्यक्तिगत स्वतंत्रता बनाम किसी व्यक्ति पर धर्मांध विचारधारा से प्रेरित सरकार द्वारा सामुदायिक पहचान के जबर्दस्ती थोपे जाने का है।

नारी सशक्तिकरण की बात यू तो बड़े जोर-शोर से की जाती है, फिर भी नारी के अपने साथी के चुनाव या धर्म परिवर्तन की इच्छा को बड़े व्यवस्थित ढंग से इनकार किया जाता है। हादिया लगातार कहती रही कि वह इस्लाम के सिद्धांतों से प्रभावित होकर धर्म परिवर्तन करना चाहती है। अंबेडकर ने खुलेआम बौद्ध धर्म स्वीकार किया था, जबकि वे जाति से दलित थे।

भारतीय संविधान में व्यक्ति को धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान की गई है। वह अपनी इच्छा से किसी धार्मिक या आध्यात्मिक पथ का चुनाव कर सकता है। सरकार को नागरिकों के इस मौलिक और निजी अधिकार में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। किसी व्यक्ति के धर्मांतरण के विचार पर उसे समझाया जा सकता है। परंतु उसकी निजी पसंद पर हिंसक शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।

भारत की विविधता कोई दिखावा मात्र नहीं है। यह विविधता सही मायने में तभी सार्थक होगी, जब भारत हिंदू-मुस्लिम विवाहों का अपराधीकरण करने की बजाय जश्न मनाएगा। सामाजिक बुराइयों के उन्मूलन पर चलाए गए गांधीवादी अभियानों की तरह ही अब प्रेम, जाति, समुदाय और धर्म द्वारा प्रतिबंधित प्रेम के बचाव का समय है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित सागारिका घोष के लेख पर आधारित। 29 नवम्बर, 2020