एक असंवैधानिक कानून का अस्तित्व क्यों ?

Afeias
20 Jul 2021
A+ A-

Date:20-07-21

To Download Click Here.

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने विनोद दुआ मामले में, वर्ष 1962 के केदार नाथ सिंह मामले में लगाए गए राजद्रोह कानून की फिर से पुष्टि की है, और सरकार को इसके पालन का आदेश दिया है। केदारनाथ मामलें में भारतीय दंड संहिता 124ए के अंतर्गत व्याख्यायित देशद्रोह की संवैधानिक वैधता को सही ठहराया गया था।

क्या है 124ए ?

भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए चार आधार पर देशद्रोह-कानून लगाने की अनुमति प्रदान करती है। कहे गए शब्द, लिखित, इशारे या प्रदर्शन के आधार पर सरकार के खिलाफ घृणा फैलाना या उसको उकसाना या अवमानना करने को राजद्रोह माना जा सकता है। इस धारा को समझाते हुए तीन स्पष्टीकरण दिए गए हैं। पहले में ‘असंतोष’ को द्रोह और शत्रुता की समस्त भावना से जोड़ा गया है। दूसरी और तीसरी व्याख्या में सरकार या उसके कार्यों की आलोचना की उतनी ही अनुमति है, जब तक कि वह सरकार के प्रति उग्र असंतोष या घृणा या अवमानना या इनको उकसाने का कारण न बने।

देशद्रोह कानून का इतिहास –

इस कानून को 1870 में ब्रिटिश सरकार ने अपनी आलोचना करने वाले भारतीयों के दमन के लिए बनाया था। औपनिवेशिक शासन के दौरान इस कठोर कानून के अंतर्गत देशद्रोह के सभी मामलों में, कानून के जनक स्टीफन द्वारा निर्धारित बुनियादी प्रस्तावों का पालन किया गया था। 1891 में बांगोबासी मामले में, गंगाधर तिलक के 1897 और 1908 के मामले में, महात्मा गांधी के 1922 के मामले में, उच्च न्यायालयों और अंतत प्रिवी काउंसिल की न्यायिक समिति ने लगातार यह माना कि हिंसा या विद्रोह को उकसाना, आईपीसी की धारा 124ए के तहत राजद्रोह का आवश्यक हिस्सा नहीं है।

संविधान में राजद्रोह को उचित प्रतिबंध नहीं माना गया –

इस धारा को अनुच्छेद 19(2) के तहत संरक्षण नहीं मिलता है। इस संदर्भ में यह उल्लेख किया जाना चाहिए कि राजद्रोह को अंततः अनुच्छेद 19 से निकाल दिया गया था। यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि संविधान निर्माताओं ने राजद्रोह को उचित प्रतिबंध नहीं माना था। हालांकि, संविधान सभा के फैसले से सुप्रीम कोर्ट प्रभावित नहीं हुआ, और उसने अनुच्छेद 19(2) के कुछ शब्दों का लाभ उठाते हुए इस कानून को बना रहने दिया। अन्यथा 1962 में इसे असंवैधानिक करार दिया जा सकता था। केदारनाथ मामले में उच्चतम न्यायालय ने 1942 के निहेन्द्र दत्त मजूमदार बनाम एम्पटर के मामले का संज्ञान लेते हुए सार्वजनिक अव्यवस्था की आशंका का हवाला देते हुए इसे संवैधानिक बनाए रखा।

केदारनाथ मामले के निर्णय में अनुच्छेद 124ए के अंतर्गत हिंसा या विद्रोह को उकसाने के अभाव में राजद्रोह नहीं माने जाने को सरकार ने उपेक्षित रखते हुए इस धारा का दुरूपयोग किया है। इन वर्षों में सरकार ने लगभग सभी उम्र के लोगों को केवल आलोचना करने के अपराध में ही देशद्रोही बना दिया। लक्ष्यद्वीप का मामला हम सबके सामने है।

लोकतंत्र में जनता को सरकार बदलने का अधिकार होता है। जिस सरकार ने उन्हें विफल किया है, उसके प्रति असंतोष प्रदर्शित करना उनका अधिकार है। राजद्रोह कानून का अस्तित्व बनाए नहीं रखा जा सकता, क्योंकि यह 19(1)ए का उल्लंघन करता है, और 19 (2) द्वारा संरक्षित नहीं है। केदारनाथ के निर्णय पर एक बड़ी पीठ द्वारा तत्काल समीक्षा की जानी चाहिए।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित पी.डी.टी. आचार्य के लेख पर आधारित। 29 जून, 2021