डिजिटल जगत में असमानता को दूर करने का प्रयास किया जाए

Afeias
31 May 2021
A+ A-

Date:31-05-21

To Download Click Here.

महामारी ने भारत में डिजीटल तकनीक के प्रयोग को बढ़ा दिया है। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी आवश्यक सेवाओं में इनकी जरूरत बहुत बढ़ गई है। उस तुलना में यह जनता को उपलब्ध नहीं है। एक ओर तो महामारी के चलते हुए आर्थिक नुकसान ने इससे जुडी असमानता की दरार को और गहरा कर दिया है, दूसरे दूर-दराज के क्षेत्रों में इंटरनेट सुविधाओं की पर्याप्त पहुँच नहीं है।

शिक्षा से जुड़े कुछ तथ्य –

  • नेशनल सैंपल सर्वेक्षण डेटा से पता चलता है कि 2017 में मात्र 6% ग्रामीण और 25% शहरी घरों में कंप्यूटर था।
  • इंटरनेट सुविधाओं के मामले में भी पिछडापन रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में से मात्र 17% और शहरी क्षेत्रों में से 42% में ही यह सुविधा उपलब्ध रही है।
  • पिछले चार वर्षों में स्मार्ट फोन के डेटा से संपर्क साधन बढ़े हैं, परंतु देश की वंचित जनता अभी भी संघर्ष कर रही है।

एन सी ई आर टी और अजीम प्रेमजी फाउंडेशन के डेटा बताते हैं कि 27% और 60% के बीच लोगों को ऑनलाइन पढ़ाई की सुविधा नहीं मिल पा रही है। इसका कारण डेटा पैक खरीदने में असमर्थता, डिवाइस की साझेदारी या घर पर गैजेट खरीदने की क्षमता का होना आदि हैं।

  • इंटरनेट कनेक्टिविटी की बाधा भी पढ़ाई न हो पाने का बड़ा कारण है।
  • घर में पढाई का वातावरण भी नहीं मिल पा रहा है। अधिकांश घर बहुत छोटे हैं, जिसमें रहने वाले सदस्यों की संख्या ज्यादा है। लड़कियों से घर के कामकाज में हाथ बंटाने की अपेक्षा रखी जाती है।

स्वास्थ्य क्षेत्र –

  • महामारी के चलते लोगों का स्वास्थ्य खर्च बहुत बढ़ गया है। सरकार की ओर से सकल घरेलू उत्पाद में स्वास्थ्य बजट मात्र 1% होने से, 2018 के आंकड़ों के अनुसार लोगों का अपनी जेब से जाने वाला स्वास्थ्य खर्च 60% से ऊपर था।

अमेरिका जैसे निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर आश्रित देश में भी लोगों को अपने पास से सिर्फ 10% ही स्वास्थ्य पर खर्च करना पडता है।

  • भारत के निजी स्वास्थ्य क्षेत्र में नियमन का अत्यंत अभाव है। इसके चलते गरीबों को अच्छी स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध नही हो पाती हैं।
  • वर्तमान स्थितियों में सभी प्रकार के उपचार को एप से जोड़ दिए जाने से निर्धन जनता के लिए उसकी पहुँच कठिन हो गई है।

सरकार, ऑक्सीजन जैसी आवश्यक सुविधा की कालाबाजारी रोक पाने में नाकाम है। उल्टे वह हर सुविधा के लिए “आधार” को अनिवार्य बनाती जा रही है।

  • डिजीटल तकनीक से जोडने का लाभ तभी मिल सकता है, जब देश की कमजोर और गरीब जनता के पास उसकी पहुँच हो। वैक्सीन के लिए ‘कोविन’ से स्लॉट कोई कैसे ले सकता है, जब फोन या कंप्यूटर ही न हो । इसकी वेबसाइट भी केवल अंग्रेजी में बनी हुई है।
  • स्वास्थ्य क्षेत्र में जब तक वार्ड स्टाफ, नर्स, डॉक्टर, लैब, ऑक्सीजन जैसी मूलभूत सुविधांए नहीं बढ़ती हैं, तब तक आरोग्य सेतु, आधार और डिजिटल स्वास्थ्य आई डी अप्रभावी सिद्ध होते रहेंगे। इन सबके लिए हमें तकनीकी नहीं, वरन् राजनीतिक समाधान चाहिए।

10 वर्ष बीत जाने पर भी आधारकार्ड के अभाव में मूलभूत कल्याणकारी योजनाओं से वंचित रह जाने की कई घटनाएं सामने आती हैं। लैपटाप के अभाव में एक प्रतिभाशाली युवती का आत्महत्या करना, शिक्षा मंत्री के संसद में दिए गए उस वक्तव्य का खंडन करता है कि ऑनलाइन शिक्षा के कारण किसी की पढ़ाई नहीं रुकी है। सरकार का दायित्व है कि बढ़ते डिजटलीकरण के दौर में ऐसी व्यापक नीति बनाकर चले, जो समावेशी हो।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित रितिका खेरा के लेख पर आधारित। 11 मई 2021