धर्मांतरण विरोधी कानून पर प्रश्न
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धर्मांतरण का मामला बहुत पेचीदा होता है। किसी को जबरदस्ती धर्मांतरित करने के कई उदाहरण हैं। लेकिन ज्यादातर मामलों में धर्मांतरण स्वेच्छा से होता है। जबरन धर्मांतरण का हौवा खड़ा करना राजनीतिक रूप से तो चलता रहता है, लेकिन कानूनी रूप से संदिग्ध है। इनमें ‘लव जिहाद’ सबसे नाटकीय है। यह सब देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने राज्यों से मौजूदा धर्मांतरण विरोधी कानूनों की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर जवाब देने को कहा है।
कुछ बिंदु –
- धर्म को मानने, उसका पालन और प्रचार करने की स्वतंत्रता संविधान के अनुच्छेद 25 में दी गई है।
- इसमें अपनी धार्मिक पहचान को बदलने की भी स्वतंत्रता निहित है।
- विडंबना यह है कि कुछ राज्य ‘सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन’ की संवैधानिक गारंटी में धर्मांतरण को सार्वजनिक अव्यवस्था का जिम्मेदार मानते हैं। इस तरह वे धर्मांतरण विरोधी कानून का पक्ष लेते हैं। यह सरासर राजनीतिक छल है।
- जबकि इसके लिए भारतीय न्याय संहिता की धारा 351 (धमकी को अपराध घोषित करना) जैसे मौजूदा कानून ही काफी होने चाहिए।
सांप्रदायिक आधार पर राज्यों द्वारा बनाए गए कानून या दिए गए आदेश देश में अंतर-सामुदायिक वैमनस्य को ही बढ़ाएंगे। अतः उच्चतम न्यायालय का कदम उचित कहा जा सकता है। यह देश में भाईचारे की संस्कृति को बढ़ावा देगा।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 18 सितंबर, 2025