देश में अवैध खनन पर कुछ बिंदु
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- राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय ने अरावली में हो रहे अंधाधुध खनन को लेकर चेतावनी दी है।
- 2019 से लेकर 2059 तक अगर खनन का यही हाल रहा, तो हम भारत की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखला का 22% खो सकते हैं।
- अरावली पर्वत श्रेणी, थार रेगिस्तान की प्राकृतिक सीमा के रूप में काम करती है। यह प्राकृतिक जल रिचार्ज सुविधा भी देती है। इसके क्षरण से मरूस्थलीकरण बढ़ने की आशंका प्रबल है।
- निः संदेह यह केवल अरावली की समस्या नहीं है। उत्तराखंड से लेकर राजस्थान, हरियाणा से लेकर गोवा और उत्तरपूर्व तक जंगलों, झीलों, खेतों को योग-रिसॉर्ट्स से लेकर फिल्म स्टूडियो तक सब कुछ बनाने के लिए डेवलपर्स द्वारा निगला जा रहा है।
विकास के नाम पर पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र की बिक्री
- पहाड़ियों को समतल करने वाली गतिविधि के लिए सरकारी नियमों में बदलाव किया जा रहा है। पर्यावरण कानूनों में छूटों, और वन-भूमि को गैर-वन भूमि में परिवर्तित करके कमजोर बनाया जा रहा है।
- इनका उपयोग डेवलपर्स, शहरी विभाग और राज्य सरकारें मनमाने तरीके से कर रही हैं। हाल ही में गोवा के संवेदनशील 6 करोड़ वर्गमीटर क्षेत्र को ‘सेटलमेंट’ के नाम पर मुक्त कर दिया गया। इसी प्रकार हरियाणा में एक फिल्म स्टूडियों बनाने के लिए 400 एकड़ के क्षेत्र को छूट दे दी गई है। उत्तराखंड में खनन को आसान बनाने के लिए नीतियों में बदलाव और नियमों में संशोधन किया गया है।
विकास के नाम पर किए जाने वाले ऐसे प्रयास अदूरदर्शी हैं। अरब सागर के गर्म होने का मतलब है कि भारत के पश्चिम में चक्रवातों की आवृत्ति बढ़ेगी। वनों की कटाई और पिघलते ग्लेशियरों ने पहाड़ी राज्यों को भूस्खलन के प्रति संवेदनशील बना दिया है। उच्चतम न्यायालय ने अरावली के खनन में होने वाली अपूर्णीय क्षति को रोकने के अनेक प्रयास किए हैं। अब सरकार को जागना चाहिए, और हमारे पहाड़ों को बचाने के लिए प्रभावशाली कानून बनाने चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 19 जून, 2023