
दलबदल पर निर्णायक कार्रवाई के लिए स्पीकर पर उच्चतम न्यायालय का दबाव
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विधानसभाओं में दलबदल का मुद्दा हाल के वर्षो में एक जटिल मुद्दा बन गया है। सत्तारूढ़ दलों ने दलबदल को प्रोत्साहित करके अपने विधायी समर्थन को बढ़ाने की सीमा पार कर दी है।
कुछ बिंदु –
- सदनों में दलबदल पर अध्यक्ष की निष्क्रियता अधिकतर 2010 के बाद से देखी जा रही है। मणिपुर में इसी वर्ष, और बाद में महाराष्ट्र में देखा गया कि दलबदल करने वाले विधायकों के खिलाफ विपक्षी दलों की अयोग्ता याचिकाओं पर अध्यक्ष ने चुप्पी साध ली।
- कई राज्यों ने चुनावों के तुरंत बाद सत्तारूढ़ पार्टी में जाने वाले विधायकों की घटना देखी है। ऐसे में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का मजाक बन जाता है।
- हाल ही में तेलंगाना के दलबदल मामले पर याचिका की सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि सदन अध्यक्ष या ‘स्पीकर‘ को दलबदल मामले में निर्णय देने का अधिकार है। वे ‘शक्तिहीन‘ नहीं हैं। न्यायालय उन्हें एक निश्चित अवधि के भीतर निर्णय लेने के लिए कह सकती हैं।
- मई 2023 में एक संविधान पीठ ने स्पीकर के लिए दलबदल पर निर्णय लेने की समय सीमा तय की थी। फिर भी, यह मुद्दा अनसुलझा ही है। क्योंकि स्पीकर अक्सर सत्तारूढ़ दल से ही चुने जाते हैं, और वे उम्मीद के बावजूद गैर-पक्षपात पूर्ण तरीके से काम नहीं करते हैं।
- 2020 में, न्यायालय ने संसद से संविधान संशोधन करने के लिए कहा था। इसमें दलबदल पर निर्णय का अधिकार स्पीकर से छीनकर, एक स्वतंत्र न्यायाधिकरण को देने को कहा था।
तब से संसद ने संशोधन का कोई प्रयास नहीं किया है। उचित समय सीमा के भीतर दलबदल पर बहुत से अध्यक्ष अभी भी कोई निर्णय नहीं दे रहे हैं।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 5 अप्रैल, 2025
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