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भारतीय मुस्लिम महिलाओं का भरोसा संविधान पर ही क्यों?
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- मुम्बई उच्च न्यायालय ने हाजी अली दरगाह में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देकर अभूतपूर्व निर्णय दिया है। न्यायालय के इस निर्णय से विभिन्न संदर्भों में मुस्लिम महिलाओं के न्याय प्राप्त करने को लेकर कुछ सवाल उठ खड़े हुए हैं।
- वास्तव में इस्लाम एक ऐसा धर्म है, जो बहुत प्रगतिवादी है, और महिलाओं को बराबरी का दर्जा देता है। कायदे से मुस्लिम महिलाओं के लिए सभी निर्णय इस्लाम के अंतर्गत ही लिए जा सकते हैं। इसके लिए संविधान तक जाने की आवश्यकता ही नहीं है। हाल ही में शिया समुदाय ने अपने धर्म की महिलाओं को भी तलाक के बराबरी के अधिकार दिए हैं।
- सच्चाई यह है कि राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिमों के ऐसे संस्थान बने हुए हैं, जो इस्लाम ही व्याख्या करने का एक तरह से लाइसेंस रखते हैं। इनका प्रभुत्व इतना ज्यादा है कि अन्य प्रगतिवादी सामाजिक संस्थाओं द्वारा की गई कोई भी पहल उनके सामने कोई मायने नहीं रखती। जबकि भारतीय संविधान किसी भी प्रकार के शोषित एवं वंचित समुदायों के अधिकारों का रक्षक है।
- यूं तो मुस्लिम महिलाओं के लिए काम करने वाले गैरसरकारी संस्थान तथा भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलनों ने भारतीय न्यायिक व्यवस्था की लचर स्थिति को देखते हुए मुस्लिम महिलाओं को त्वरित न्याय दिलाने के लिए शरीया के अंतर्गत मुस्लिम अदालत एवं उनमें प्रशिक्षित महिला काजियों की नियुक्ति की पहल की है। परंतु आज भी अधिकांश मुस्लिम महिलाएं भारतीय संविधान पर विश्वास करके न्यायालयों का ही दरवाजा खटखटाती हैं। धर्म विशेष से संबंधित मामलों में न्यायालय भी उनके धर्मगुरूओं पर निर्भर हो जाते हैं, और कई बार सही निर्णय नहीं दे पाते। शाहबानो ने मुस्लिम महिलाओं में अपने अधिकारों के लिए आगे आने की अलख जगाई थी।
- न्यायालयों के रुख को देखते हुए भी महिलाएं आज भी अपनी स्वतंत्रता या अधिकारों के लिए उन पर ही भरोसा करना उचित समझती हैं। यह खेद की बात है कि जहाँ धर्मों और समुदायों को मानवाधिकारों के प्रति अपना कदम आगे बढ़ाकर प्रगतिवादी बनना चाहिए, वहाँ वे धार्मिक जाल फेंककर दमित वर्ग को और अधिक जकड़ना चाहते हैं।
- भारतीय संविधान जिस समानता एवं न्याय की नींव पर खड़ा है, उसे देखते हुए महिलाओं को अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संविधान सबसे सुरक्षित संस्थान लगता है।
‘इडियन एक्सप्रेस’ में रजिया पटेल के लेख पर आधारित।
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