सार्वजनिक वितरण प्रणाली
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- सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों में होने वाले सरकारी खर्च एवं उसकी बर्बादी की वजह से स्वयं सरकार एवं बहुत से सामाजिक कार्यकर्ता अभावग्रस्त वर्ग को सीधे धन दिए जाने के पक्ष में हैं। इन्हीं कार्यक्रमों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली भी एक है। लोगों का मानना है कि इस प्रणाली से जरूरतमंद को कोई बहुत अधिक लाभ नहीं पहुँच रहा है।
- राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 47 प्रतिशत जनता सार्वजनिक वितरण प्रणाली से लाभान्वित हो रही है। इस पर सरकारी सब्सिडी प्रति व्यक्ति 600 रु. की दर से दी जाती है। परंतु सार्वजनिक वितरण प्रणाली बंद होने की स्थिति में इन व्यक्तियों को राशन के लिए बाजार में 600 रु. से ज्यादा देने होंगे। इस प्रकार इस प्रणाली का लाभ उठाने वाले बहुत बड़े वर्ग को पर्याप्त मुआवजा नहीं मिल पाएगा।
- हमारे देश में मुद्रा स्फीति की तुलना में न्यूनतम मजदूरी की दर काफी कम है। ऐसे में किसी सामाजिक कल्याण योजना के तहत उस बढ़ी हुई दर पर भत्ता देने में निश्चित रूप से लंबा समय लगेगा।
- अगर सरकार की कुछ योजनाओं पर नजर डालें, तो सफलता वहीं दिखाई देती है, जहाँ भत्ते की राशि काफी बढ़ी-चढ़ी थी। सन् 2011 में दिल्ली सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली को हटाकर पाँच सदस्यों वाले एक गरीब परिवार को 2400 रुपये प्रति व्यक्ति सालाना देना तय किया था। इसी प्रकार यूनीसेफ के द्वारा मध्यप्रदेश में भी भत्ते की शुरुआत की गई थी, जो सफल रही।
भत्ते की राशि में अगर बढ़ोत्तरी कर भी दी जाए, तब भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बंद करने के अपने ही नुकसान हैं, जैसे-
- खाद्य सुरक्षा पर सरकार के नियंत्रण का कम होना।
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली के द्वारा अन्न की अच्छी खपत हो जाती है। इस प्रणाली का लाभ लेने वाले 47 प्रतिशत लोगों के लिए यह संतोष तो है कि इन्हें पर्याप्त पोषण मिल रहा है। आंकड़ों पर नजर डालें तो ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति कैलोरी ग्रहण 2200 एवं शहरी क्षेत्रों में 2100 है।
- प्रणाली को हटाने से न तो किसान और न ही उपभोक्ता को लाभ होगा।
सार्वजनिक व्यय को बढ़ाए बिना सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बंद करने की बात ठीक नहीं लगती। इससे न तो खाद्य सुरक्षा निश्चित होगी और न ही आर्थिक प्रगति हो सकेगी।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ में इमराना कदीर एवं सौरींद्र मोहन घोष के लेख पर आधारित।
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