उच्च वर्ग पर दलितों का ऋण
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- दलितों पर हो रहे अत्याचारों को लेकर लोकसभा में काफी बहस हुई है। राजनैतिक दलों ने यह नतीजा निकाला कि दलितों की शिक्षा, कृषि, भूमि
एवं पूंजी में बढ़ोतरी करके ही उनकी दशा को सुधारा जा सकता है। दलितों की दशा में पिछड़ेपन के अन्य कारण भी हैं, जिन पर गौर किया जाना चाहिए। - राजनैतिक दलों को जाति और समानता को मुख्य मुद्दा मानकर काम करना होगा। इसके लिए संविधान का आधार तो उनके पास है ही। यदि वे भारत की प्राचीन परंपरा में गुरूनानक, कबीर, रविदास तथा गौतम बुद्ध का उदाहरण लेकर चलें, तो जाति प्रथा में असमानता से लड़ने के रास्ते ढूंढ सकते हैं।
- सन 1995 से दलितों के प्रति हिंसा के बहुत से मामले सामने आए हैं। ये दलितों की समान अधिकारों की मांग के विरोध में एक तरह से उच्च वर्गों का गुस्सा दिखाते हैं। राजनैतिक दलों को हिंसा की इन घटनाओं में फंसने के बजाय उसकी जड़ों तक पहुँचकर काम करना चाहिए।
- शिक्षा, भूमि एवं पूंजी का स्वामित्व देकर दलितों की स्थिति को मजबूत करने के पक्ष में सभी राजनैतिक दल हैं। आंबेडकर मानते थे कि दलितों के लिए अलग व्यवस्था करके उन्हें उच्च जातियों के शोषण एवं बहिष्कार के भय से बचाया जा सकेगा, और तभी वे आर्थिक उन्नति कर पाएंगे। वास्तव में स्थिति यह है कि 2012 तक ग्रामीण दलितों में से मात्र 23 प्रतिशत के पास ही अपनी भूमि है। ग्रामीण क्षेत्रों के दलितों में से 14 प्रतिशत के पास एवं शहरी क्षेत्रों में 32 प्रतिशत के पास अपना व्यवसाय है। वर्तमान सरकार ने इस पर ध्यान दिया है, और ऋण के जरिए दलितों के उद्योगों को बढ़ावा दिया जा रहा है।
- आर्थिक संदर्भ में अगर हम मलेशिया एवं दक्षिण अफ्रीका से सीखें, तो निश्चित रूप से दलितों की स्थिति को उन्नत कर सकते हैं। इन देशों ने घरेलू एवं विदेशी कंपनियों में गरीबों के दायरे को बढ़ा दिया है। इसका नतीजा यह हुआ कि 1970 में मलय समुदाय का हिस्सा जहाँ 7 प्रतिशत था, वह सन् 2000 में बढ़कर 20 प्रतिशत हो गया। भारत में भी ऐसा किया जा सकता है। इसके अलावा सार्वजनिक एवं कृषि योग्य परती भूमि को भी बागवानी एवं पशुपालन के लिए दलितों को दिया जा सकता है।
- दलितों का एक छोटा भाग ही सफल व्यवसायी बन सका है या बन सकता है। इनकी प्रगति का मुख्य आधार नौकरियों में आरक्षण ही रहा है, जो सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में ही मिलता है। परंतु अब सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरियाँ लगभग 20 प्रतिशत ही रह गई हैं। 80 प्रतिशत नौकरियाँ निजी दायरे में आ गई हैं।
यद्यपि नौकरियों में आरक्षण देना दलितों के जख्म पर बहुत बड़ी दवा का काम कर रहा है। परंतु पूर्व में उन्हें जिस शिक्षा एवं सम्पत्ति के अधिकार से वंचित रखा गया, यह उसकी भरपाई नही कर पा रहा है। अगर उच्च वर्ग ने अपनी प्रगति दलितों को दबाकर की है, तो उच्च वर्ग पर आज दलितों का बहुत बड़ा ऋण है, जो उन्हें चुकाना ही चाहिए।
’इंडियन एक्सप्रेस’ में सुखदेव थोरात के लेख पर आधारित