छद्म विज्ञान के विरुद्ध खड़े होने के लिए वैज्ञानिकों को आजादी चाहिए
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हाल के कुछ वर्षों में भारतीय वैज्ञानिकों और विज्ञान अकादमियों की चुप्पी बढ़ गई है। 2015 में 102वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस के आयोजन से शुरू होकर, कई मौकों पर वैज्ञानिकों में प्रतिक्रिया की कमी देखी जा रही है। ज्ञातव्य हो कि इस विज्ञान कांग्रेस में प्राचीन और मध्ययुगीन काल में किए गए वास्तविक वैज्ञानिक योगदान को पूरी तरह से दरकिनार करते हुए, प्राचीन भारत में सभी आधुनिक ज्ञान का भंडार होने के हास्यास्पद दावे किए गए थे। इसके बाद भी देश के अग्रणी वैज्ञानिकों वाली एक हाई-प्रोफाइल समिति ने इसकी समीक्षा और अनुमोदन कैसे किया ? इसके कुछ कारण हैं –
- इसका पहला कारण है कि यह अनुमोदन लगभग पूरी तरह से सरकार द्वारा दी जाने वाली निधि पर निर्भर करता है। ऐसे में प्रतिशोध करने पर भय और आशंका बनी रहना स्वभाविक है। यह वैज्ञानिकों को समाज के प्रति जुड़ाव से दूर ले जाता है।
- दूसरे, हमारे समकालीन वैज्ञानिक शोधकर्ता, स्वतंत्रता प्राप्ति के शुरूआती वर्षों के विपरीत उदार बौद्धिक विचारों से पूरी तरह से कटे हुए हैं। अधिकांश वैज्ञानिकों के लिए तार्किक विज्ञान का आधार विदेशों पर निर्भर करता है। हमारे विश्वविद्यालयों में विज्ञान के विद्यार्थियों का परिचय, सामाजिक विज्ञान से पर्याप्त नहीं कराया जाता। इस प्रकार से वैज्ञानिक रुझान रखने वाले छात्र, विज्ञान के उदार बौद्धिक स्वरूप से बेखबर रहते हैं।
- यह मुद्दा चिंता का विषय है, क्योंकि 21वीं सदी में फासीवादी प्रवृत्तियों के साथ, अनुदार लोकतंत्र का उदय हो रहा है। यह भारत सहित दुनिया के विभिन्न हिस्सों में असहिष्णुता और बहिष्कार को जन्म दे रहा है। हम ऐसे समय में रह रहे हैं, जब प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग से लेकर पर्यावरणीय प्रभावों तक की सार्वजनिक नीति के तर्क में वैज्ञानिक सलाह हाशिए पर है।
20वीं सदी की शुरुआत में कई प्रमुख वैज्ञानिक दर्शनशास्त्र से गहराई से जुड़े हुए थे, और उन्होंने समाज पर विज्ञान के प्रभाव के बारे में सोचने के विशिष्ट तरीके विकसित किए थे। वे सामाजिक मुद्दों के बारे में बहुत अधिक सक्रिय थे। ऐसा लगता है कि उस विरासत की निरंतरता टूट गई है। युवा वैज्ञानिकों के बीच इस सांस्कृतिक स्थान को पुनः प्राप्त करने के लिए विज्ञान की शिक्षा में शैक्षणिक इनपुट शामिल किया जाना चाहिए, जो शिक्षार्थियों को झूठे सिद्धांतों के खिलाफ खड़े होने में मदद कर सके।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित सी.पी. राजेंद्रन के लेख पर आधारित। 4 जनवरी, 2022