ब्रिक्स को लेकर भारत की दुविधा
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हाल ही में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में समूह के विस्तार का विचार देखा गया है। अर्जेंटीना और ईरान को नए सदस्यों के रूप मे शामिल किया गया है। हांलाकि इससे यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि क्या उभरती भू-राजनीतिक स्थिति के बीच ब्रिक्स समूह एक पहचान संकट से गुजर रहा है। ऐसा लगता है कि समूह के बीच एक गहरा अंतविरोध है, जो भारतीय विदेश नीति के लिए कठिनाई खड़ी कर सकता है।
ब्रिक्स का आधार –
आर्थिक सहयोग और वैश्विक शासन सुधार से संबंधित मामलों पर उभरते बाजारों के बीच कुछ साझा दृष्टिकोण ने ही ब्रिक्स-सहयोग के लिए आधार प्रदान किया है। इस अर्थ में, समूह का एजेंडा न केवल आर्थिक बल्कि राजनीतिक भी था। दक्षिण अफ्रीका को 2010 में ब्रिक्स में शामिल करके इसे और भी रेखांकित किया गया है।
ब्रिक्स का मुख्य स्तंभ –
- राजनीतिक और सुरक्षा
- आर्थिक और वित्तीय
- सांस्कृतिक ( लोगों के बीच संस्कृति का आदान-प्रदान )
व्यवहार में, आर्थिक और वित्तीय स्तंभ पर काफी काम किया गया है, परंतु राजनीतिक और सुरक्षा फ्रंट पर विदेशी मंत्रियों और सुरक्षा सलाहकारों की नियमित बैठक तो होती रहीं, लेकिन वे आमतौर पर वैश्विक शासन के मुद्दों पर साझा दृष्टिकोण की पुष्टि करने और साझा चिंताओं पर स्थिति के समन्वय के बारे में की गईं। संक्षेप में, सुरक्षा सहयोग की बयानबाजी और वास्तविकता के बीच एक खाई है।
भारत का नजरिया –
जहाँ चीन और रूस ब्रिक्स को सुरक्षा के एजेंडे के तहत व्यापक बनाना चाहते हैं, वहीं भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका इसे विकास के चश्मे से देखते हैं।
इस दृष्टिकोण को लेकर चलने से भारत अलग-थलग पड़ सकता है। नए विकासशील देशों के ब्रिक्स समूह में जुड़ने के साथ ही भारत के लिए यह दुविधा की स्थिति हो जाएगी। एक अग्रणी विकासशील देश के रूप में, भारत विकासशील देशों की आकांक्षाओं से दूर नहीं हट सकता है। दूसरी ओर, चीन और रूस द्वारा परिकल्पित ब्रिक्स का विस्तार ( जो कि पश्चिम.विरोधी एजेंडा है ) भारत के प्रभाव को कम कर देगा। इससे भारत की बहुपक्षीय रणनीति में अस्थिरता आ सकती है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित मनोज केवलरमानी के लेख पर आधारित। 4 जुलाई, 2022