भारतीय लोकतांत्रिक सिद्धांतों की विरोधी है इलेक्टोरल बांड योजना
Date:22-04-21 To Download Click Here.
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने इलेक्टोरल बांड योजना पर सुनवाई करते हुए अपना आदेश सुरक्षित रखा है। पिछले तीन वर्षों से भारत में राजनीतिक पार्टियों की फंडिंग का प्रमुख जरिया, इलेक्टोरल बांड ही बना हुआ है। अपने रूप और आकार में यह राजनीतिक पार्टियों को बेहिसाब और बेनामी दान प्राप्त करने की सुविधा प्रदान करता है। यही कारण है कि इसे लोकतंत्र के लिए घातक और भारतीय संविधान के सिद्धांतों के विरूद्ध माना जा रहा है।
लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ा झटका
लोकतंत्र में जब नागरिक अपने किसी प्रतिनिधि को संसद में भेजने के लिए चुनते हैं, तो उन्हें पूरी जानकारी प्राप्त करने का अधिकार होता है। इस सूचना में सबसे महत्वपूर्ण यह जानना होता है कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि या राजनीतिक दल की फंडिंग कहाँ से हो रही है।
लोकतांत्रिक समाज में यह आम हो चला है कि पार्टियों की फंडिंग करने वाला उनकी नीतियों पर अपना प्रभुत्व बनाकर, उन्हें अपने हित में करवा लेता है। ऐसा होने की संभावना तब अधिक होती है, जब नागरिकों को दानकर्ता या दान प्राप्त करने के आधार की जानकारी नहीं होती है। उच्चतम न्यायालय ने विशेषतः चुनावों के संदर्भ में जानकारी के अधिकार को भारतीय संविधान की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का एक अभिन्न अंग माना है। इस संदर्भ में इलेक्टोरल बांड योजना, हमारे लोकतंत्र के मौलिक अधिकारों का हनन करती है।
किसी भी लोकतंत्र की सफलता के लिए राजनीति में धन की संलग्नता का सीमित होना अत्यंत आवश्यक है। बहुत से उन्नत देशों में, चुनावों की फंडिंग सार्वजनिक रूप से की जाती है, और समता के सिद्धांत के आधार पर यह सुनिश्चित किया जाता है कि सत्ताधारी दल और विपक्षी दल के बीच संसाधनों की बहुत अधिक असमानता न हो। इसका उद्देश्य चुनावों की मूल भावना को बनाए रखना होता है। अतः जिन देशों में सार्वजनिक फंडिंग की व्यवस्था नहीं है, वहाँ राजनीतिक दलों को दी जाने वाली वित्तीय सहायता की सीमा निश्चित की जाती है।
इलेक्टोरल बांड योजना ने राजनीतिक फंडिंग पर पहले लगाई गई सभी सीमाओं को समाप्त कर दिया है, और धनाढ्य कार्पोरेशन के लिए राजनीतिक दलों को खरीदने का रास्ता खोल दिया है। इलेक्टोरल बांड के द्वारा किया जाने वाला दान विषम भी है। चूंकि यह दान भारतीय स्टेट बैंक के माध्यम से किया जाता है, इसलिए सरकार के लिए यह जानना आसान है कि किसने किस दल को कितनी राशि दान में दी, परंतु विपक्षी दल इसे नहीं जान सकता। हर एक दानकर्ता को यह पता है कि केंद्र सरकार उनके दान की जानकारी रखती है।
बचाव में दलीलें
सरकार ने इस योजना को यह कहकर न्यायोचित ठहराने की कोशिश की है कि इससे चुनावों में काले धन के इस्तेमाल पर रोक लगेगी। प्रश्न यह उठता है कि इस योजना में भी गुमनाम दानकर्ता द्वारा असीमित धन दिए जाने से काले धन के बहाव को कैसे रोका जा सकेगा ? यह योजना तो विदेशी दान को भी प्रोत्साहित करती है। यह अधिकांशतरू कंपनियों के द्वारा किया जाता है। इलेक्टोरल बांड योजना को संस्थागत भ्रष्टाचार बढ़ाने का माध्यम माना जा सकता है।
यह जानना आवश्यक है कि इस योजना का किया जाने वाला विरोध केवल राजनीतिक नैतिकता के आधार पर नहीं है, बल्कि इसका आधार संवैधानिक है।
राजनीतिक दान की सीमा को हटाकर कानून के समक्ष समानता की गारंटी का उल्लंघन किया जा रहा है। साथ ही इसकी जानकारी को गुप्त रखकर मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन किया जा रहा है।
न्यायपालिका की भूमिका
किसी भी लोकतंत्र की स्वतंत्र न्यायापालिका के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया की मौलिकता को बनाए रखना सबसे महत्वपूर्ण होता है। सरकारें चुनावों से अपनी वैधता प्राप्त करती हैं। यही उन्हें अदालतों के अनुचित हस्तक्षेप के बिना अपने नीतिगत लक्ष्यों को आगे बढ़ाने के लिए जनादेश देते हैं। अतः सरकार के गठन की ओर ले जाने वाली इस प्रक्रिया को विशेष सतर्कता के साथ जांचा जाना चाहिए। इस पर लगा कोई भी दाग पूरी प्रक्रिया को दागदार बना सकता है।
दूसरे शब्दों में, चुनावी प्रक्रिया संदिग्ध हो जाने की स्थिति में सरकार की वैधता भी संदेह के घेरे में आ जाती है। चूंकि सरकार स्वयं प्रत्येक पांच वर्ष में इस पूरी प्रक्रिया का हिस्सा होती है, इसलिए प्रक्रिया को नियमित करने के लिए न्यायालय जैसा स्वतंत्र निकाय ही रह जाता है, जो सशक्त तरीके से लोकतंत्र के मूलभूत नियमों का पालन करवा सकता है।
इस संदर्भ में अभी तक उच्चतम न्यायालय की भूमिका निराशाजनक रही है। इलेक्टोरल बांड को चुनौती देने वाली याचिका 2018 में दाखिल की गई थी। भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ से संबंधित इस महत्वपूर्ण मामले को तीन वर्षों तक नजरअंदाज किया गया। यह कहना ज्यादा सही होगा कि उच्चतम न्यायालय निष्क्रिय नहीं है, बल्कि वह सत्तासीन दल को लाभ पहुँचाने के चलते ऐसे कदम उठाता है।
इन सबके बावजूद उच्चतम न्यायालय ने इलेक्टोरल बांड से संबंधित संक्षिप्त सुनवाई को शामिल करके एक अच्छा संकेत दिया है। उम्मीद की जा सकती है कि न्यायालय इस योजना पर स्थगन आदेश जारी कर सकेगा, जिससे फिलहाल हो रहे चुनावों के साथ कुछ न्याय किया जा सके।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित गौतम भाटिया के लेख पर आधारित। 26 मार्च, 2021