भारतीयों की जेब पर भारी पड़ता स्वास्थ्य खर्च
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कुछ बिंदु –
- 2022 की विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य सेवा पर होने वाले आउट ऑफ पॉकेट एक्सपेंस (ओओपीई) से लगभग साढ़े पांच करोड़ भारतीय प्रतिवर्ष गरीबी की सीमा तक पहुंच जाते हैं।
- लगभग 17% परिवारों के लिए तो यह स्वास्थ्य खर्च प्रतिवर्ष विनाशकारी सिद्ध होता है।
- एम्स की भी एक रिपोर्ट बताती है कि बढ़े हुए स्वास्थ्य खर्च के चलते बहुत से परिवार भोजन में पोषक तत्वों को शामिल नहीं कर पाते हैं।
- इस मामले में ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति और भी बदतर है।
- 2023 के राष्ट्रीय स्वास्थ्य रिपोर्ट में बताया गया है कि 2004-05 में लोगों का स्वास्थ्य खर्च जहाँ 69.4% था, वह 2018-19 में घटकर 48.21% रह गया था। 2019 में वैश्विक औसत 18.1% था। इसमें दवाओं और अस्पताल भर्ती पर ही अधिक खर्च हुआ दिखता है।
- ‘आयुष्मान भारत’ और ‘जन औषधि परियोजना’ के सकारात्मक परिणाम मिलते रहे हैं। फिर भी कुछ कारण ऐसे हैं, जिनके कारण जनता को राहत नहीं पहुंचाई जा सकी है। (1) लोगों में जागरुकता की कमी के चलते आयुष्मान भारत योजना का पूरा लाभ न मिलना। (2) देश में डायबिटीज, हृदय एवं पलमोनरी जैसे गैर-संक्रामक रोगों का लगातार बढ़ना। (3) तपेदिक और मलेरिया जैसी संक्रामक बीमारियों को नियंत्रित करने में लगातार चुनौतियां बने रहना।
- सरकार को चाहिए कि वह स्वास्थ्य देखभाल पर सार्वजनिक खर्च को बढ़ाए, जन औषधि केंद्र नेटवर्क को मजबूत करे, प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में सुधार करे, और पर्याप्त संख्या में चिकित्साकर्मियों को नियुक्त करे।
‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 27 फरवरी, 2024
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