भारत में काम के घंटे निश्चित नहीं
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भारत में कर्मचारियों को कार्यस्थल से बाहर निकलने के बाद भी काम के संपर्क में रहना पड़ता है। यानि कि उन्हें डिस्कनेक्ट करने का अधिकार नहीं है। एडीपी रिसर्च इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन के अनुसार, 49% भारतीय कर्मचारी कार्यस्थल के तनाव से जूझ रहे हैं। यह उनके मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है। दरअसल, डिस्कनेक्ट करने के अधिकार से उत्पादकता बढ़ती है। कर्मचारियों और नियोक्ताओं का समग्र विकास होता है।
विदेशों में कार्य-जीवन संतुलन पर बने कानून –
फ्रांसीसी उच्चतम न्यायालय ने 2001 में फैसला सुनाया था कि किसी कर्मचारी पर काम के घंटों के बाद घर से काम करने का कोई दायित्व नहीं है। पुर्तगाल, आयरलैंड, स्पेन और आस्ट्रेलिया में भी इस तरह के कानून हैं।
भारत की स्थिति क्या है?
- भारत में इस प्रकार के डिस्कनेक्ट से जुड़ा कोई विशेष कानून नहीं है।
- संविधान के राज्य नीति निर्देशक सिद्धांत और विभिन्न न्यायिक घोषणाओं में अनुकूल और स्वस्थ वातावरण में काम करने के अधिकार की बात की गई है।
- संविधान के अनुच्छेद 38 में कहा गया है कि ‘राज्य लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा।’
- कार्यस्थल पर शारीरिक, मानसिक तथा यौन आदि उत्पीड़न से जुड़े अनेक मामलों में समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय ने कर्मचारियों के पक्ष में अधिकांश निर्णय देते हुए उनके प्रति गरिमापूर्ण और समानता का व्यवहार करने के निर्देश दिए हैं।
महत्वपूर्ण विधायी प्रयास –
- 2018 में सांसद सुप्रिया सुले ने लोकसभा में इससे संबंधित विधेयक प्रस्तुत किया था। प्रावधानों का पालन न करने पर कंपनी पर सभी कर्मचारियों के पारिश्रमिक का एक प्रतिशत हर्जाने के रूप में देने का दायित्व प्रस्तावित था।
- कुछ माह पूर्व एक कार्पोरेट कर्मचारी की कथित तौर पर काम के दबाव के चलते मृत्यु हो गई थी। इस पर सांसद थरूर ने कहा था कि ‘कार्यस्थल पर अमानवीयता को समाप्त करने के लिए कानून बनाया जाना चाहिए।’
‘द हिंदू’ में प्रकाशित राजेश रंजन के लेख पर आधारित। 10 दिसंबर, 2024