भारत के मूल निकायी (आदिवासी) क्या चाहते हैं
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हाल ही के झारखंड चुनावों में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा आदिवासियों को रिझाने की कोशिश गई है। दलों ने आदिवासी अधिकारों, सरना कोड पर उनकी अलग धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान और बाहरी लोगों द्वारा उनके क्षेत्र को हड़पे जाने के भय से उन्हें मुक्त करने का भी आश्वासन दिया है। आदिवासियों की स्थिति पर कुछ बिंदु –
- वे दुनिया की आबादी का 6% हैं, लेकिन बहुत अधिक गरीब लोगों में 19% हैं।
- यूरोपीय उपनिवेशवाद ने कई स्वदेशी जनजातियों को उखाड़ फेंका है। अपने जीवन के विकल्पों पर उनकी स्वायत्तता को नकार दिया गया।
- लेकिन समय के साथ मूल अमेरिकी, न्यूजीलैंड के माओरी आदिवायियों को संप्रभु आबादी के रूप में देखा जाने लगा है।
- भारत के आदिवासियों को उपनिवेशवाद, औद्योगिक और वाणिज्यिक परियोजनाओं के नाम पर विस्थापन, संवैधानिक पितृसत्ता और धार्मिक हस्तक्षेप की मार झेलनी पड़ी है।
- आदिवासियों के अधिकार व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही हैं। वे हम में से किसी की तरह, एक सम्मानजनक जीवन चाहते हैं। लेकिन समूहों के रूप में, वे पूंजीवाद और मुख्यधारा के क्रम से अलग कोण पर हैं।
- उन्होंने पर्यावरण न्याय आंदोलन चलाया, डकोटा तेल पाइपलाइन का विरोध किया और मध्य भारत की खनन परियोजनाओं का भी विरोध किया है, क्योंकि उनका जीवन और संस्कार अलग तरह के हैं। वे पारंपरिक अर्थशास्त्र की गणना से अलग हैं।
- उपभोक्तावादी संस्कृति में उनकी दखल नहीं है। लेकिन उनके पास प्राकृतिक ज्ञान भरपूर है।
इन आदिवासियों को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 13 नवंबर, 2024
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