अवसर की समानता पर ध्यान दिया जाना चाहिए
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पूरी दुनिया में एक ऐसा वातावरण बनाने की आवश्यकता पर राजनीतिक रूप से आम सहमति है, जहां किसी के अवसर को उसके जन्म तक सीमित न किया जाए। लेकिन जब वास्तविकता के धरातल पर ऐसा करने की बात आती है, तो असहमति ही दिखाई देती है।
उदाहरण के लिए 1990 के दशक के मध्य में, अरबपति टेक निवेशक पीटर थिएल ने अपनी पुस्तक ‘द डाइवर्सिटी मिथ’ में बताया है कि बहुसंस्कृतिवाद के नाम पर अमेरिकी विश्वविद्यालयों में उत्कृष्टता को कैसे कम किया जा रहा है। उनका यह भी कहना है कि समाज में फैले असमानता जैसे गंभीर मुद्दों से हमारा ध्यान हटाने के लिए विविधता (डायवर्सिटी) और पहचान (आईडेंटिटी) की राजनीति खेली जाती है।
भारत में इस स्थिति को बढ़ते देखा जा सकता है। आरक्षण का दायरा लगातार फैल रहा है। कई और समुदायों को विभिन्न आरक्षित सूचियों में शामिल कर लिया गया है। अब और भी अधिक जातियां, राजनीतिक दलों के संरक्षण के साथ इस सूची में आने के लिए आंदोलन कर रही हैं। पहचान की राजनीति करने वाले ये दल, थिएल के सिद्धांत को भले ही न मानें, लेकिन उनके अपने विकास ने सरकार में विविध आवाजों की जगह बना दी है। इसी प्रकार से, निजी क्षेत्र में भी यह माना जाने लगा है कि विविधता से बेहतर व्यावसायिक निर्णय लिए जा सकते हैं। हालांकि इस विचार के फलने-फूलने में अभी समय लगेगा।
असमानताओं से निपटने के प्रश्न पर तो हम विफल ही हैं। एक ओर जातिगत पहचान गहरी होती जा रही है, तो दूसरी ओर आय की असमानता बढ़ती जा रही है। सामाजिक गतिशीलता पर केवल एक प्रकार के प्रतिबंध की पहचान करने के बजाय, हमें इस बात पर सहमत होना चाहिए कि अवसर की कोई भी कमी किसी व्यक्ति की अपनी पूरी क्षमता तक जीने की क्षमता को प्रभावित करती है। यह किसी अर्थव्यवस्था की मध्यम अवधि की विकास क्षमता को सीमित करती है, जो बदले में व्यक्तियों के बीच आय की असमानता को बढ़ाती है। इस प्रकार यह दुष्चक्र चलता जाता है।
नीति निर्माताओं और उद्यमों को चाहिए कि वे इतिहास में हुए अन्यायों को व्यर्थ में ही ठीक करने के बजाय ऐसी नीतियों पर ध्यान दें, जो अवसर की समानता को बढ़ाएं।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 1 मई, 2023