आर्थिक पक्ष पर विरोधाभास
Date:07-12-20 To Download Click Here.
हाल ही में भारत ने क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आर सी ई पी) समझौते से अपने को दूर रखा है। इस निर्णय के तुरंत बाद ही हमारे विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अपने एक वक्तव्य में मुक्त व्यापार और वैश्वीकरण को अस्वीकार करते हुए कहा कि, “खुलेपन के नाम पर हमने विदेशों को उत्पादों पर सब्सिडी और अनुचित उत्पादन लाभ दिया है। एक मुक्त और वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए यह न्यायोचित मंत्र की तरह है। यह बहुत ही असाधारण था कि भारत जैसी आकर्षक अर्थव्यवस्था को दूसरों द्वारा निर्धारित किए जाने की अनुमति दी गई थी।” इस पूरे वक्तव्य से सरकार की आर्थिक नीति के कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर नजर डाली जानी चाहिए।
- आर सी ई पी जैसे समझौते पर हस्ताक्षर न करके भारत क्षेत्रीय और वैश्विक अर्थव्यवस्था के किनारे आ खड़ा हुआ है। विश्व व्यापार संगठन के द्वारा बहुपक्षीय वैश्विक व्यापार में कोई जान नहीं रही है। व्यापार में उन्नति के लिए विभिन्न प्रकार के मुक्त व्यापार समझौते किए जा रहे हैं, जो कारगर हैं। बहुत से एशियाई देश भारत से आगे निकल चुके हैं।
- अन्य प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत की अर्थव्यवस्था अभी भी सीमित है। विश्व व्यापार संगठन के अनुसार भारत मोस्ट फेवर्ड नेशन आयात शुल्क 13.8% लगाता है, जो किसी भी प्रमुख अर्थव्यवस्था की तुलना में सबसे ज्यादा है। संयुक्त राष्ट्र की वाणिज्य और विकास सूची में भारत को ‘अत्यधिक प्रतिबंधित’ राष्ट्र माना जाता है।
- भारतीय विनिर्माण को संकट में डालने के लिए मुक्त व्यापार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। अनेक सरकारी आंकड़े सिद्ध करते हैं कि इससे भारतीय उद्योगों को लाभ ही हुआ है। भारतीय उद्योगों के पिछडेपन का प्रमुख कारण प्रतिस्पर्धा की कमी और संरचनात्मक सुधारों की कमी ही है।
- विदेश मंत्री ने भारतीय व्यापार को पूर्व सरकारों द्वारा दूसरों को निर्धारण हेतु सौंपे जाने का आरोप लगाया है। लेकिन उनकी अपनी सरकार भी तो आर सी ई पी के देशों को भारत के लिए हितकारी फ्रेमवर्क पर काम करने के लिए मनाने में विफल रही है।
- जहाँ तक आर्थिक नीति में मुक्त व्यापार और आर्थिक भूमंडलीकरण का प्रश्न है, भारत ने 1991 के बाद इससे पर्याप्त लाभ लिया है। 2004-05 में भारत की गरीबी 40% के करीब थी, जो 2011-12 में आधी हो चुकी थी। इस दौरान भारत ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार के साथ 8% की आर्थिक विकास दर अर्जित की थी।
2014 में आई मोदी सरकार को सामाजिक स्तर पर परंपरावादी, परंतु आर्थिक स्तर पर मुक्त व्यापार और भूमंडलीकरण का समर्थक समझा जा रहा था। अब सरकार ने संघ परिवार की विचारधारा के अनुसार ही “वोकल फॉर लोकल” का नारा देना शुरू कर दिया है।
दूसरी ओर सरकार, भारत को विदेशी निवेश का केंद्र भी बनाना चाहती है। संकुचित और प्रतिबंधित आर्थिक नीति के साथ सरकार का यह स्वप्न पूरा नहीं हो सकता। ऐसा लगता है कि सरकार का उदारवाद का मुखौटा उतर गया है, और अब उसकी मूल विचारधारा ही आर्थिक नीति पर हावी होती दिखाई दे रही है, जो देश के हित में नहीं लगती।
‘द हिंदु’ में प्रकाशित प्रभास रंजन के लेख पर आधारित। 20 नवम्बर, 2020