हमारे उद्योगों पर मंडराते काले बादल

Afeias
06 Jul 2017
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Date:06-07-17

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भारत के कुछ निर्यात-उद्योग ऐसे हैं, जो विश्व बाजार का एक बड़ा क्षेत्र घेरते हैं। लेकिन कुछ वर्षों से लगातार आशंका जताई जा रही है कि आने वाले समय में रोबोट बहुत से रोजगार छीन लेंगे। भारत के कुछ वृहद् उद्योगों पर भी रोबोटिक्स का काला साया पड़ने की आशंका जताई जा रही है। यहाँ मुख्य रूप से हम तीन उद्योगों-कपड़ा, जूता और सूचना प्रौद्योगिकी पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की चर्चा कर रहे हैं।

  • भारत का रेडीमेड कपड़ा उद्योग बहुत बड़ी मात्रा में निर्यात करता है। केवल भारत ही नहीं, बल्कि चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका भी इस क्षेत्र में बहुत आगे हैं। इन देशों में इस उद्योग के पनपने का एक बहुत बड़ा कारण सस्ता श्रम है। लेकिन अब इस पर काले बादल मंडराने लगे हैं।

हाल ही में जार्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टैक्नॉलॉजी के प्रोफेसर ने एक ऐसा रोबोट तैयार किया है, जो गोलाकार कपड़े की बिल्कुल सही सिलाई कर सकता है। यह एक जटिल प्रक्रिया है और अगर रोबोट ऐसी सिलाई में सक्षम है, तो निश्चित रूप से वह आड़ी-तिरछी सिलाई तो पूरे सलीके से कर ही सकेगा।

अब एशिया के वस्त्र उद्योग के लिए इन मशीनों का आयात करके उनका उपयोग करने का एक दबाव सा आन पड़ा है। इससे उत्पन्न बेरोजगारी से निपटना एक बड़ी समस्या होगी।आने वाली इस समस्या से सीख लेने के साथ-साथ शिक्षाविदों का ध्यान भी आकृष्ट किया जाना चाहिए। साथ ही नीति-निर्माताओं और अनेक सरकारी विभागों को इस ओर सचेत होकर अपनी अर्थव्यवस्था को ज्ञान आधारित बनाने का रास्ता ढूंढना चाहिए।

नवीन विचारों के माध्यम से अमेरिका की एक निजी कम्पनी और सरकारी विभाग ने मिलकर एक प्रकार का रूपांतरण कर दिया है। इस रूपांतरण के पीछे जो विचार उत्पन्न हुआ था, उसे एक लाभकारी निजी संस्था ने अमेरिका के रक्षा संस्थान की देखरेख में सम्पन्न किया। रक्षा संस्थान ने इसके लिए संविदात्मक अनुदान दिया था।

  • जूता उद्योग के क्षेत्र में नाईके जैसी कम्पनी जूता-निर्माण के लिए थ्री डी प्रिंटर पर लगातार प्रयोग कर रही है। जाहिर है कि अगर वह इसमें सफल हो जाती है, तो इस प्रकार की उच्च क्षमता वाली तकनीक के आगे दुनिया माथा टेकेगी। इससे भारत में जूता उद्योग को गहरी मार पड़ने की आशंका है।
  • तीसरा क्षेत्र सूचना प्रौद्योगिकी का है। इस क्षेत्र में अगर हम भारत की सर्वश्रेष्ठ कम्पनी की भी तुलना गूगल से करें, तो पाते हैं कि भारत की कम्पनी की तुलना में गूगल अपेक्षाकृत कम कर्मचारियों के साथ भी भारतीय कम्पनी से कहीं बहुत ज्यादा लाभ कमा रही है। इसका सीधा सा कारण है कि गूगल नए विचारों पर काम कर रही है और इसके लिए वह स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से जुड़ी हुई है। जबकि भारत की कम्पनियां मस्तिष्क के बजाय मांसपेशी के बल पर ज्यादा निर्भर हैं।

                अगर हम अपने स्वयं के इतिहास पर नजर डालें, तो देख सकते हैं कि तक्षशिला, नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों की सफलता किसी केन्द्रीय कार्यनीति का परिणाम नहीं थे। यह इन विश्वविद्यालयों की ही अपनी विचार शक्ति थी, जिसने इन्हें इतने उच्च स्तर पर पहुँचाया। इन सबसे सीख लेना कोई भारी दुष्कर या परिश्रम का काम नहीं है। नीतियां ऐसी हों, जो अभिप्रेरण का काम करें और सृजनात्मकता को जन्म दें। ये नीतियां नए विचारों को पोषण करने वाली हों। घिसे-पिटे विचारों से अलग नई खोजों को बढ़ावा दें और सबसे बड़ी बात है कि ये जोखिम और विफलताओं को आराम से संभाल सकें।

                यह सच है कि विचारों का जन्म अधिकतर अकादमिक संस्थानों में ही होता है। परन्तु ऐसा होना अनिवार्य नहीं है कि केवल शिक्षा संस्थान ही इनका आधार बनें। किसी भी प्रकार के संस्थान नए विचारों का उद्भव कर सकते हैं। मुंबई के डब्बावाले, क्रेग वेंटर या आईंस्टाइन के जीवन को ही अगर देखें, तो हमारी यह परंपरागत सोच धराशाही हो जाती है। क्राइस्ट से बहुत पहले भारत में कैटरैक्ट सर्जरी और प्लास्टिक सर्जरी का आविष्कार हो चुका था। हमारे सौदागरों के जहाज उस समय दिशा ज्ञात करने वाले उपकरण कमल की मदद लेते थे, जब यूरोप को इसकी हवा भी नहीं थी।

                जरूरत हमारे शिक्षा संस्थानों को इस प्रकार से तैयार करने की है, जो देश की परिस्थितियों और जरूरतों के अनुसार समाधान दे सकें। दूसरी आवश्यकता इस बात की है कि रोबोट या आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस या अन्य किसी भी प्रकार के आने वाले खतरों के प्रति समय पर रेड अलर्ट कर दिया जाए। कर्म के अभाव में ज्ञान का कोई महत्व नहीं है।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित दिनेश सिंह के लेख पर आधारित।