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हमारी आंतरिक असुरक्षा
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इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है कि केन्द्र में सशक्त सरकार के होते हुए भी हमारी आंतरिक सुरक्षा में आए दिन सेंध लगती रहती है। इसका कारण यही है कि हमारी वर्तमान सरकार और पूर्व सरकारों ने सुरक्षा प्रबंधन की नींव को मजबूत करने पर ध्यान नहीं दिया है। अमेरिका और ब्रिटेन में प्रतिवर्ष राष्ट्रीय सुरक्षा का मूल्यांकन कर उसमें फेरबदल किया जाता है और इसे जनता के समक्ष भी रखा जाता है। हमारी उलझनें तो इन देशों की तुलना में अधिक जटिल हैं। फिर भी हम इस विषय पर पूर्व नियोजित क्यों नहीं रह पाते? आंतरिक सुरक्षा के पटल पर हम कई जगह असफल हैं।
- हमारी आंतरिक सुरक्षा से जुड़ी प्रणाली के लिए किसी प्रकार की संस्था का गठन नहीं किया गया है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड को बंद कर दिया गया है। हालांकि इसका पुनर्गठन किया गया है, परन्तु नए स्वरूप को दुर्बल रखा गया है।
- हमारी पुलिस व्यवस्था में बहुत सी खामियां हैं। सन् 2006 में इन्हें सुधारने के लिए उच्चतम न्यायालय ने दिशानिर्देश दिए थे। इस पर राज्यों ने कोई सक्रियता नहीं दिखाई, और अब ये एपेक्स कोर्ट में धीमी गति से चल रहे हैं। अभी तक सरकार ने दिल्ली पुलिस अधिनियम को भी लागू नहीं किया है। हमारे अंग्रेज शासक शायद अधिक दूरदर्शी थे। उन्होंने पूरे देश के लिए एक पुलिस विधेयक रखा था। आज हमारे देश में पुलिस से संबंधित अलग-अलग संहिताएं हैं। राज्यों के अपने अलग नियम हैं। यही कारण है कि प्रधानमंत्री की स्मार्ट पुलिस की अवधारणा कभी सफल ही नहीं हो सकी।
- केन्द्र और राज्यों की तनातनी के कारण ही आज तक आतंक विरोधी योजनाएं लागू नहीं की जा सकी हैं। राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी केन्द्र की स्थापना का प्रस्ताव है। इस प्रस्ताव में कुछ संशोधन करके इसे लागू किया जा सकता है। केन्द्र सरकार इस मामले पर राज्यों को छेड़ना नहीं चाहती और यह प्रस्ताव ज्यों का त्यों लंबित पड़ा है।
- हमारी आंतरिक सुरक्षा का एक अन्य पहलू जम्मू-कश्मीर से जुड़ा हुआ है। रोज ही पाकिस्तान विभिन्न समझौतों का उल्लंघन करते हुए हमारे सशस्त्र बल को निशाना बना रहा है। कश्मीर में हुए भाजपा-पीडीपी गठबंधन का कोई सकारात्मक असर देखने में नहीं आ रहा है। सरकार को इस समस्या से निपटने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।
- नक्सलियों से जुड़ी समस्या भी चुनौतीपूर्ण है। 9 मई को इससे प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने दिल्ली में बैठक करके ‘‘समाधान’’ नामक फॉर्मूला पेश किया है, जो आक्रामक रणनीति को भी समाहित करता है। उम्मीद है कि इसके सफल परिणाम प्राप्त हो सकेंगे।
- उत्तरपूर्व में देखें, तो नगा सोशलिस्ट कांउसिल ऑफ नागालैंड और सरकार के बीच हुई बातचीत से कुछ उम्मीद जगी है। नागाओं की समस्या भी जटिल है। इनके नेता मुईवा तो अभी भी ‘नगा संप्रभुता’ की ही बात कर रहे हैं।
- अल-कायदा का जाल फैलता जा रहा है। इसने पूरे उपमहाद्वीप में मुजाहिदीन के लिए ‘कोड ऑफ कंडक्ट’ जारी कर रखा है। इसने भारतीय सशस्त्र सेना और हिन्दू नेताओं को निशाना बनाने का लक्ष्य रखा है। अपने एक वीडियो में इस्लामिक स्टेट ने सभी मुसलमानों को कश्मीर में मुसलमानों पर हो रहे तथाकथित अत्याचार के विरूद्ध खड़े होने का आह्वान किया है।
क्या हम इन सभी स्थितियों से निपटने के लिए तैयार हैं? इन सबके लिए ऐसी दूरदर्शितापूर्ण व्यापक योजनाओं की आवश्यकता है, जो आंतरिक सुरक्षा साधनों में आधुनिकीकरण से जुड़ी हों।
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित प्रकाशसिंह के लेख पर आधारित।