स्वास्थ्य सेवाओं में उल्टे त्रिभुज का गणित

Afeias
31 Jan 2019
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Date:31-01-19

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भारत के राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम की शुरुआत 1946 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने वाली मोरे समिति की सिफारिशों के साथ हुई थी। समिति की सिफारिशें आज भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं, जितनी कि रिपोर्ट प्रस्तुत करने के समय थीं। परन्तु दुर्भाग्यवश हम उन सिफारिशों को जमीनी स्तर पर पूरा करने में असमर्थ रहे हैं। यही कारण है कि हमारी सरकारी अस्पताल बेघरों के आश्रयस्थल जैसे लगते हैं। आज भी लोग इनके गलियारों में रात बिताते दिखाई देते हैं।

मोरे समिति की कुछ मुख्य सिफारिशें इस प्रकार थीं –

  • दो स्तरों पर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं का विकास करना।
  • प्रति 10,000-20,000 की जनसंख्या पर 75 बिस्तरों वाले अस्पतालों का निर्माण होना चाहिए।
  • 70 वर्षों बाद भी आज यह अनुपात 10,000 की जनसंख्या पर नौ तक पहुंच पाया है।
  • 40,000 की जनसंख्या पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र व माध्यमिक स्तर का दूसरा स्वास्थ्य केन्द्र,जो प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को सहयोग दे, एवं उनके कार्यों पर निगरानी रखे।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत तीन स्तरीय स्वास्थ्य सेवाओं की शुरुआत, समिति की सिफारिशों पर ही की गई है। इनमें पहले उप-केन्द्र, फिर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र व सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र आते हैं। इसके बाद जिला अस्पतालों को रखा गया है।

इन केन्द्रों की संख्या क्रमशः 1.5 लाख उप-केन्द्र, (एस सी) 25,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र (पी एच सी) व 5,600 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र (सी एच सी) है। इसके बावजूद जनसंख्या के हिसाब से ये 30 प्रतिशत तक कम हैं।

यदि इन केन्द्रों की वास्तविक स्थिति और बुनियादी ढांचे की बात करें, तो वे खस्ता हाल कहे जा सकते हैं। अध्ययन बताते हैं कि जिला अस्पताल पहुँचे 50 प्रतिशत से अधिक रोगियों को प्राथमिक चिकित्सा की ही आवश्यकता होती है। परन्तु सब-केन्द्रों व प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में सेवाओं की न तो सुविधा है, और न ही गुणवत्ता है। इन कमियों को दूर करने के लिए सरकार ने कुछ उपाय किए हैं –

(1) आयुष्मान भारत योजना में उप-केन्द्रों (एस सी) को हेल्थ एण्ड वेलनेस सेंटर की तरह विकसित किया जा रहा है। इन केन्द्रों में प्रसव, टीकाकरण, बच्चों में डायरिया व निमोनिया से निपटने के लिए सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी। प्राथमिक स्तर पर ही इतनी सुविधाएं दे देने से ग्रामीण एवं निर्धन जनता का धन एवं समय, दोनों ही बर्बाद होने से बच जाएगा।

(2) सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की कमियों को पहचानते हुए इसमें पीपीपी पैटर्न पर काम किया जाना बाकी है। नीति आयोग तो राज्यों को इसके लिए प्रोत्साहन दे रहा है। अब नियमन में भी इस प्रकार के वातावरण के लिए अनुकूल कदम उठाए जाएं। सिंगल डॉक्टर क्लीनिक को बढ़ावा देकर गांवों में डॉक्टर की कमी को पूरा किया जा सकता है।

(3) तकनीक तक पहुंच बढ़ाकर स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारा जा सकता है। टाटा ट्रस्ट और कर्नाटक सरकार ने ‘डिजीटल नर्व सेंटर’ की शुरुआत करके टेली-मेडिसीन, वीडियो कांफ्रेंसिंग और ई-अपॉइंटमेंन्ट जैसी प्रणाली को अपना लिया है। इसे अन्य स्थानों पर भी शुरू किया जाना चाहिए।

सकल घरेलू उत्पाद में 1 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवा-खर्च के साथ इस क्षेत्र के संस्थागत ढांचे में सुधार करना चुनौतीपूर्ण हैं, परन्तु असंभव नहीं है।

द टाइम्स ऑफ इंडियामें प्रकाशित रूहा सदाब के लेख पर आधारित। 1 जनवरी, 2018