सामाजिक न्याय का सुनहरा पक्ष

Afeias
08 Nov 2018
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Date:08-11-18

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सार्वजनिक नीति से संबंधित उच्चतम न्यायालय के किसी भी निर्णय में नागरिकों को दो प्रकार की अपेक्षाएं होती हैं। (1) कोई भी निर्णय भारतीय संविधान से सुसंगत हो, और (2) उसके निर्णय से प्रशासन को शक्ति मिलनी चाहिए। न्यायालय के समक्ष अनुसूचित जाति/जनजाति को पदोन्नति में आरक्षण दिए जाने का मामला था, जिसमें उसने उपरोक्त् वर्णित दोनों ही बिन्दुओं पर अपने को सिद्ध नहीं किया। न्यायालय ने 2006 के निर्णय में सरकार द्वारा अनुसूचित जाति/जनजाति के सरकारी कर्मचारियों की संख्या को एकत्रित करने को दरकिनार कर दिया।

सरकार ने 1992 में इंदिरा साहनी के मामले में नौ सदस्यीय पीठ के उस फैसले का भी संज्ञान नहीं लिया, जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जाति/जनजाति के मामले में क्रीमी लेयर पर विचार-विमर्श का कोई मतलब नहीं है। इंदिरा साहनी के मामले में संवैधानिक प्रावधानों का हवाला देते हुए न्यायालय ने यह स्पष्ट किया था कि अनुसूचित जाति/जनजाति को आरक्षण इसलिए नहीं दिया जा रहा है, क्योंकि वे गरीब हैं; बल्कि इसलिए दिया जा रहा है, क्योंकि वे अपवर्जित या समाज से बाहर रखे गए हैं।

अनुच्छेद 335 में इस वर्ग के आरक्षण को प्रतिनिधित्व के अधिकार के रूप में ही निर्धारित किया गया है, न कि कल्याणकारी कदम की तरह। इस संदर्भ में कोई नागरिक अनुसूचित जाति/जनजाति में अपेक्षाकृत कमजोर लोगों के कल्याण के लिए रोजगार उपलध कराने की अपील कर सकता है। परन्तु इसके लिए क्रीमी लेयर को सामान्य वर्ग में भी अलग करने का मुद्दा उठाया जाएगा।

न्यायालय क्या कर सकता है?

अनुसूचित जाति/जनजाति में क्रीमीलेयर के अंतर्गत आ चुके लोगों को आरक्षण की सुविधा से स्वयं बाहर निकलने का विकल्प न्यायालय दे सकता है। वर्तमान में इस वर्ग के पास आरक्षण को अस्वीकार करने का कोई विकल्प नहीं है।

किसी भी उम्मीदवार को सरकारी नौकरी के आवेदन के दौरान अपनी जाति लिखने की अनिवार्यता होती है। अनुसूचित जाति/जनजाति लिखते ही वह अपने आप आरक्षित सूची में आ जाता है। इस वर्ग को सामान्य वर्ग सूची में प्रतिस्पर्धा करने की छूट देकर, अनुसूचित जाति/जनजाति के तमाम पिछड़े लोगों को आगे आने का मौका दिया जा सकेगा।

इससे एक लाभ यह भी होगा कि इस वर्ग के लोग कुल जनसंख्या में उनके अनुपात की तुलना में अधिक पदों की मांग करना बंद कर देंगे। कुल-मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हमारे देश और उसकी नीतियों को इस बात पर गर्व होना चाहिए कि उसने देश के सबसे पिछड़े जाति वर्ग में से आज ऐसे क्रीमी लेयर का सृजन कर लिया है, जो सामान्य वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार हो चुका है। इन लोगों ने अपने समुदाय को आम भारतीयों की श्रेणी में खड़ा होने योग्य बना दिया है। यह अपने आप में क्रांतिकारी है।

अब इनकी राह में रोजगार और पदोन्नति को लेकर रोड़े अटकाना घातक सिद्ध हो सकता है। सामान्य वर्ग के लोगों में क्रीमी लेयर को शामिल रखकर चुनाव करने और आरक्षित वर्ग में केवल पिछड़े व गरीबों को रखकर चुनाव करने में कैसी समानता मिल सकेगी? आज का सक्षम वर्ग, कल पिछड़ा हुआ रहा होगा। यह एक सामान्य सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी बदलती जाती है। भारत को अपनी जाति-व्यवस्था की कमियों से उपजी सामाजिक विसंगति को दूर करने के लिए संवैधानिक प्रावधानों की आवश्यकता है, और इस हेतु देश के सर्वोच्च न्यायालय से निश्चितता और निरंतरता बनाए रखने की उम्मीद की जा सकती है।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित डी. श्याम बाबू के लेख पर आधारित। 4 अक्टूबर, 2018