समानता की मृगतृष्णा

Afeias
21 Feb 2018
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Date:21-02-18

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15 अगस्त 1947 को हमारा देश स्वतंत्रता का जश्न मना रहा था। इस पावन अवसर पर सत्ता हस्तांतरण के साथ ही विभाजन से जुड़ी घटनाओं के अशुभ समाचार सुने जा रहे थे। जख्मों के घाव भर नहीं पाए और वे विकृत असमानता के रूप में आज भी हमारे देश के पटल पर छाए हुए हैं। भारत आजाद तो हो गया, परन्तु उसकी आत्मा आज भी एकता और विविधता के द्वंद्व-युद्ध में फंसी हुई है।26 जनवरी, 1950 को हमारे देश के लोग (राजा-महाराजा नहीं) संप्रभु हो गए। हमारे संविधान ने हमें हमारे भूतकाल से मुक्ति दिलाकर हमें एक समतावादी उदार प्रजातंत्र बना दिया।संविधान के 68 सालों के बाद भी समता एक मृग मरीचिका बनी हुई है। गरीब और उपेक्षित लोगों के लिए अवसर की समानता बहुत दूर की बात  लगती है। इस असमानता की शुरूआत दूध पिलाने वाली गरीब माताओं से हो जाती है, जो रक्ताल्पता और कुपोषण की शिकार हैं। जिन्हें हर पल यह डर सताए रहता है कि कहीं उनका कुपोषित बच्चा अविकसित न रह जाए।

ये बच्चे शिक्षा के बिना ही बड़े होते जाते हैं, क्योंकि इस व्यवस्था को तो बुनियादी ढांचे की कमी और शिक्षकों की अनुपस्थिति की दीमक खाए जा रही है। गरीबी के कारण स्कूल जाते बच्चे भी स्कूल छोड़ रहे हैं। जो वयस्क हैं, वे या तो बेरोजगार हैं, या क्षमता से कम का रोजगार कर रहे हैं। संसाधन और कौशल की कमी से उनका जीवन दूभर हो चला है। अमीर वर्ग का ही बोलबाला है। आर्थिक असमानता बढ़ गई है। भारत की अधिकांश यानि 93 प्रतिशत जनता ग्रामीण भारत की गरीब जनता है। वहीं देश के 1 प्रतिशत अमीर वर्ग केे पास देश का अधिकांश धन है। अवसर की असमानता ने हमारे मौलिक अधिकारों का हनन किया है। हमारी गरीब जनता मौन या निःशब्द है, और जो बोलने का प्रयत्न करता है, उसे सुना नहीं जाता।

संप्रदाय और जातीय हिंसा का वातावरण बन चुका है। इस प्रकार की मानसिक प्रवृत्ति ने असमानता को अपराध से जोड़ दिया है।देश के किसान संकट में हैं। उनके ऋणभार और आत्महत्या के समाचार आए दिन सुनाई देते रहते हैं। जहाँ बाढ़ उनके सपनों को बहा रही है, और अकाल से जीवन त्रस्त है, ऐसे में डिजीटल इंडिया और भारत नेट क्या करेगा? जिस देश के 59 प्रतिशत नौजवानों ने कभी कम्प्यूटर पर काम नहीं किया है, और 64 प्रतिशत लोगों ने कभी इंटरनेट का उपयोग नहीं किया है, उस देश में डिजीटल क्रांति को कैसे सफल माना जा सकता है? जनता और सरकार के बीच की दूरी स्पष्ट है। जब देश के करोड़ों लोग संकट में हैं, तब सरकार बैकिंग लेन-देन की गति बढ़ाने और आधार के प्रचार में लगी हुई है। कुल-मिलाकर अर्थव्यवस्था की गति धीमी हो गई है। रोजगार के वायदे धुंधले पड़ गए हैं। इसके फलस्वरूप जाति और पहचान के संकट की राजनीति सिर उठाने लगी है। जाट, पाटीदार, कपू और मराठों के आंदोलन ऐसी ही राजनीति का परिणाम हैं। वित्तमंत्री ने यह स्वीकार किया है कि विमुद्रीकरण एवं वस्तु व सेवा कर के कारण कुछ समय के लिए अर्थव्यवस्था अवश्य ही लड़खड़ाएगी। उपेक्षितों के लिए तो जीवन प्रतिदिन का संघर्ष है, और उन्हें आर्थिक नीतियों के दीर्घकालीन नतीजों से क्या लेना-देना? इस प्रकार की सामाजिक विसंगति को देखते हुए लगता है कि सरकार के पास इन सबके लिए समय ही नहीं है।

प्रजातंत्र की सफलता तभी है, जब उसके समस्त हितधारकों के स्वरों को सुना जाए, और निर्णय लेने में सभी की भागीदारी हो। यह तो एक पारदर्शी और जवाबदेह वातावरण में ही पनपता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाकर, लोगों के विरोध को कुचलकर और गैर-श्रद्धालुओं को जबरन मौन करके हमारे गणतंत्र का गला घोंटा जा रहा है। जहाँ परंपरागत व्यवसायों को घातक उद्यम का रूप दे दिया गया हो, जहाँ वैश्विक विचारों को प्रगति-विरोधियों ने दबा दिया हो, और जहाँ महिलाओं और युवतियों की दर्द भरी दास्तान सुनाई पड़ती रहती हो, ऐसे शासन में चाहे चुनाव-व्यवस्था चलायमान हो, लेकिन प्रजातंत्र की मौलिक अवधारणा का नाश हो जाता है।

हमारे गणतंत्र का आधार अत्यंत उदार है। इसमें कानून को प्रमुखता दी गई है। न्यायालय बिना किसी भय के कानून का पालन करवा सकते हैं। परन्तु आज उदार विचारों को ही संदेह से देखा जाने लगा है, और उदारता से प्रेरित कार्यों को देश विरोधी माना जाने लगा है। हम देख रहे हैं कि कैसे जाँच एजेंसियाँ कानून को अपने अनुसार मोड़ रही हैं। एक राजनीतिक एजेंडे के तहत वे किसी पर भी मुकदमा चला रही हैं। एक न्यायाधीश का परिवार जहाँ षडयंत्र की दुहाई दे रहा हो, और न्याय-व्यवस्था चुप लगाए बैठी हो, ऐसे गणतंत्र में कैसे मूल्य काम कर रहे हैं? जब जांच एजेंसियां गहन अपराधों में लिप्त लोगों के विरूद्ध अपील दर्ज नहीं करतीं, और सरकार के बदल जाने के कारण अपराधियो के पक्ष में जाँच को घुमा देती हैं, तो विश्वास नहीं होता कि ऐसा भी किया जा सकता है? जब डर, राज्य के उत्पीड़न का साधन बन जाता है, तब गणतंत्र संकुचित हो जाता है।

इन सबके बावजूद एक उम्मीद है। हमारी स्वतंत्रता की लड़ाई के अनजाने और अनचीन्हे सेनानियों ने अपने जीवन का त्याग इसलिए किया था कि हम चलते रहें। हमारी उम्मीद उनसे है, जो आज भी इस गणतंत्र के प्रति समर्पित हैं। इसी उम्मीद का उत्सव मनाया जाना चाहिए।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित कपिल सिब्बल के लेख पर आधारित।