शहर की धड़कन : सार्वजनिक स्थान

Afeias
31 Oct 2019
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Date:31-10-19

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भारत के नगरीय जीवन में सार्वजनिक स्थलों को लेकर अजीब सी सोच है कि ये स्थान बहुत महत्व के हैं। यह नगरीय जीवन के पतन की दिशा में ही एक दुर्भाग्यपूर्ण सोच है। इतिहास साक्षी है कि सार्वजनिक स्थान सदा ही नगरीय जीवन का हिस्सा रहे हैं। इन्हें रखने में कोई व्यक्त इरादा नहीं होता था। समय के साथ यह क्रम चलता रहा। मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों में मैदान, खुलेपन के प्रतीक के रूप में खड़े रहे हैं। इनका इस्तेमाल अनौपचारिक मण्डलियों, असंरचित गतिविधियों और अन्य कार्यों के लिए भी हुआ है। दिल्ली के राजपथ को एक औपचारिक स्थान के रूप में विकसित किया गया था, जो अब एक ही उद्देश्य से चिपककर रह गया है।

कुछ छोटे शहरों का आयाम इस हद तक फैला हुआ है कि उनके केन्द्रों ने सार्वजनिक जीवन के मार्कर के रूप में अपना महत्व खो दिया है। भोपाल की झील का किनारा सार्वजनिक सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में उग आया है। उदयपुर की झाील के किनारे बने होटलों ने इसका सफाया ही कर दिया है। कानपुर, पुणे और हैदराबाद जैसी जगहों पर, सार्वजनिक स्थान के नाम पर बाजार हैं, जहाँ कम कीमत वाले घरेलू उत्पाद मिल जाते हैं।

भारतीय शहरों का वर्तमान सार्वजनिक स्थान की अवमानना, अज्ञानता और उदासीनता को प्रदर्शित करता है। पिछले एक दशक में सार्वजनिक भूमि का 20 प्रतिशत विकास लुप्त हो चुका है। यह रुपांतरण दो रूपों में सामने आया है। पहला तो अवैध रूप से निर्मित झुग्गियों के नियमितीकरण के रूप में और दूसरा, खाली स्थानों के वाणिज्यिक उपयोग के रूप में।

समस्या यह है कि औसतन भारतीय नगर को अभी भी लगभग 30 प्रतिशत आबादी को नए आवास के साथ समायोजित करने की आवश्यकता है। ऐसे नगरों में सार्वजनिक स्थान का क्या मूल्य है, जो अपने नागरिकों के लिए थोड़ा बहुत निजी स्थान देने में असमर्थ हैं? इसका सीधा सा अर्थ यही है कि अधिकांश भारतीय शहरों में सार्वजनिक सुविधाएं या सार्वजनिक स्थान पूरी तरह से गायब हैं।

पुस्तकालय, तरणताल, सम्मेलन स्थल, खेल के मैदान और छाया देने वाले बगीचे कहाँ गए, जो नागरिकों को दैनिक दिनचर्या की थकान के बाद राहत दे सकें? ऐसे स्थल कहाँ हैं, जो खाने और खरीददारी जैसी दो गतिविधियों के अलावा मस्तिष्क में कोई अन्य सोच विकसित कर सकें? आवश्यकता से अधिक कांक्रीट समेटे नगरों में सामाजिक, सांस्कृतिक और भौतिक दिनचर्या की विविध गतिविधियों के लिए क्या कोई जगह है?

यह महत्वपूर्ण है कि सार्वजनिक जीवन के लिए सार्वजनिक स्थान जो मूल्य रखते हैं, उसे आसानी से निर्धारित नहीं किया जाता। न्यूयार्क में इससे जुड़ा अपवाद देखा जा सकता है। वहाँ शहर के बीचों बीच 3.4 वर्ग कि.मी., जो दुनिया की सबसे मूल्यवान जमीन में से एक टुकड़ा है, को सार्वजनिक उपयोग के लिए खुला छोड़ा गया है। क्षेत्र में अनेक मनोरंजक व स्वास्थ्यवद्र्धक गतिविधियां चलती रहती हैं।

दुर्भाग्यवश, भारत के नगरों में किसी निकाय को ऐसा करने का विचार नहीं कौंधा। बढ़ने वाहनों के बीच कभी-कभार प्रदूषण की जांच कर लेना तथा साइडवॉक क्षेत्र को हरा रखने के ढीले-ढाले प्रयास के बीच पार्किंग क्षेत्र को बढ़ाते जाना, हमारी नौकरशाही के अनिर्णय और बढ़ती विफलता को दर्शात है।

शहरी बजट में सड़कों, बिजली के ग्रिड, मेट्रो ट्रेन, पुल और आवास जैसे बुनियादी ढांचों को ही प्राथमिकता दी जाती है। इनकी अधिकता मानव विकास के अन्य मानसिक ढांचों को नजरअंदाज करती जा रही है। क्या इन सबके बीच कला, पुस्तकालय, खेल, संग्रहालय और इतिहास जैसे स्थानों के लिए कोई जगह मिल सकती है, जहाँ निरूद्देश्य घूमा जा सके?

इन शहरी डिजाइन में कल्पना की भारी कमी है। आज नागरिक जीवन की दैनिक दिनचर्या को बनावट से परे ले जाने की जरूरत है। यह तीन आधार पर हो सकता है। सर्वप्रथम तो स्थानीय नियमों को ऐसा बनाया जाए, जो जीवन को आर्थिक, सामाजिक और व्यावसायिक तरीके से बांट सके। दूसरे, शहरों को आवासीय, व्यावसायिक, संस्थागत और मनोरंजन के हिसाब से क्षेत्रों में विभक्त करने वाले नियमों का खंडन कर सके। तीसरे, ऐसे विविध कार्यों के ऐसे युग्मों को तलाशना, जो नागरिकों को उनकी दैनिक दिनचर्या से बाहर निकलने को आकर्षित करें।

बढ़ती जनसंख्या के साथ पुराने बसे हुए और नए आगमन के बीच, उपयोग करने योग्य स्थान और उपलब्ध स्थान के बीच, सार्वजनिक जीवन के वैकल्पिक दृश्य की तलाश करना एक जरूरत बन गई है। जब नगरों में भूमि की कमी होती जा रही है, ऐसे में सार्वजनिक स्थान को नए रूपों और सुविधाओं के अप्रत्याशित संयोजन की ओर ले जाने वाले इरादे के योग्य बनाया जाना चाहिए।

विश्व के सर्वश्रेष्ठ नगर, शहरी जीवन में सांस लेने योग्य क्षणों को निर्मित करने के लिए प्रयास करते रहते हैं। जब तक शहरी निकाय इस ओर ध्यान नहीं देते, कुछ नही बदल सकता। हम किसी मेट्रो स्टेशन में सार्वजनिक पुस्तकालय, किसी गोल चक्कर पर तरणताल, और किसी परित्यक्त बस डिपो पर संगीत विद्यालय की स्थापना क्यों नहीं कर सकते?

खेल और संस्कृति को विपरीत स्थितियों में प्रोत्साहित करके, हम अपने शहरों को सार्वजनिक जीवन के योग्य बना सकते हैं। इस हेतु ऐसे प्रस्तावों की जरूरत है, जो वाकई भागीदारी कर सकें। इसके बाद ही नए प्रकार के नगरीय जीवन की कामना की जा सकती है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित गौतम भाटिया के लेख पर आधारित। 5 अक्टूबर, 2019