वैश्विक परिस्थितियों में भारत की विकास दर कहाँ टिकेगी ?

Afeias
03 Mar 2017
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Date:03-03-17

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ब्रेक्ज़िट और डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के बाद अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन हुए है। इसे प्रवासियों पर प्रतिबंध लगाने, आयात रोकने या जल्दबाजी में विदेशियों पर अन्य तरह से रोक लगाकर पटरी पर नहीं लाया जा सकता। इस परिवर्तन से पश्चिमी देशों की उत्पादकता पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ेगा। विकास की दर धीमी हो जाएगी, वेतन में ठहराव आएगा, निम्न एवं मध्यम दर्जे की नौकरियों में कमी आएगी और अमेजन, फेसबुक जैसे विजेता खिलाड़ी बाजी जीतते चले जाएंगे। अवैश्वीकरण का ऐसा असर देखने में आ सकता है।इस चक्रवात में भारत भी लपेटे में आएगा। बहुत से समीक्षक भारत के स्थानीय मुद्दों पर ध्यान दे रहे हैं। लेकिन अब भारत पहले की तरह आत्म-केंद्रित और आत्म-निर्भर नहीं है। आर्थिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद में अंतरराष्ट्रीय व्यापार का प्रतिशत 2008 में 55 था, जो अब घटकर 40% रह गया है। यह अभी भी चीन से ज्यादा है। चूंकि अब भारत वैश्विक अर्थव्यवस्था से गहरे रूप में जुड़ा हुआ है, इसलिए अंतरराष्ट्रीय बदलावों का प्रभाव उस पर भी पड़ना स्वाभाविक है।

किसी कामगार का विकास और उसकी उत्पादकता में बढ़ोतरी का योगफल ही सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर को इंगित करता है। अगर बुनियादी कारणों से इन दोनों में गिरावट आती है, तो विकास दर भी धीमी होती है। इस समस्या का कोई त्वरित निदान नहीं होता है।

फिलहाल उत्पादकता बढ़ाने के तरीके सामने नज़र नहीं आ रहे हैं। उत्पादकता में कमी का अर्थ निवेश में भी कमी होगी। अतः निवेश के बहुत अच्छे अवसर आने की उम्मीद नहीं है। गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियां सफल हैं, क्योंकि इनमें निवेश भी कम है और कर्मचारियों की संख्या भी। इस व्यवस्था ने पश्चिम में ब्रेक्जिट-ट्रंप के विरोध में एक तरह के विद्रोह का माहौल बना दिया है। भारत में भी इस व्यवस्था का प्रभाव छोटे-छोटे आरक्षण आंदोलनों के रूप में देखने को मिल रहा है।भारत जैसे विकासशील देशों में पश्चिमी देशों की तुलना में उत्पादकता कम है। पश्चिमी देशों की तर्ज पर इन देशों में भी इंटरनेट आधारित कंपनियां बनाकर इसे बढ़ाने की बहुत गुंजाइश  है। यदि भारत के संदर्भ में देखें, तो यहाँ की जनसंख्या में कामकाजी वर्ग बढ़ रहा है, जबकि पश्चिम में यह ढलान पर है। इसलिए भारत के पास आगे बढ़ने के अवसर अच्छे हैं। ऐसा लगता है कि हमारा देश वैश्विक मंदी की चपेट में नहीं आएगा।

एशिया की जितनी भी अर्थव्यवस्थाएं तेजी से बढ़ी हैं, उन सबकी सकल घरेलू उत्पाद दर 7% से ऊपर और निर्यात दर 15%  रही है। घरेलू मांग कभी इतनी नहीं रही कि अर्थव्यवस्था एकदम से ऊँचाई पर पहुँच जाए। इस करिश्मे के पीछे निर्यात का बढ़ना था। भारत का निर्यात पिछले 19 महीनों में गिरा है। रुपए की मजबूती इसके पीछे का कारण है। उधर रिज़र्व बैंक का कहना है कि वर्तमान घाटा मात्र 1% है।  इसका अर्थ है कि मुद्रा का मूल्य बिल्कुल सही चल रहा है। ट्रंप सरकार की नीति से अल्पकालिक लाभ हो सकते हैं। लेकिन इससे उत्पादकता नहीं बढ़ेगी। अगर पश्चिम में विकास की गति धीमी होगी, तो भारत पर भी इसका प्रभाव रहेगा।

अगर विश्व की स्थितियाँ बदलती हैं, तो भारत के विकास में तेजी आ सकती है। जब तक ये विपरीत परिस्थितियाँ चलेंगी, भारत की विकास दर 6-7%  ही रह सकती है। विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में ऐसी विकास दर भी अच्छी मानी जाएगी।

टाइम्स आॅफ इंडिया में प्रकाशित स्वामीनाथन अंकलेश्वर अय्यर के लेख पर आधारित।