विमुद्रीकरण के बाद समकालिक चुनावों की चुनौती

Afeias
23 Dec 2016
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Date: 23-12-16

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देश में संसद और विधान सभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने पर काफी समय से चर्चा चल रही है। प्रधानमंत्री ने इस संबंध में कार्यप्रणाली बनाने हेतु नीति आयोग को आदेश भी दे दिए हैं। प्रधानमंत्री भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की एक देश, एक भाषा, एक नागरिक संहिता के अनुगामी लगते हैं। वैसे भी वे जिस दल के सदस्य हैं, उसका पूर्व अवतार जनसंघ, सदा ही एक साथ चुनावों और एकल प्रणाली का समर्थक रहा है।

प्रधानमंत्री ने विमुद्रीकरण करके अपनी जीतने की संभावना को दांव पर लगा दिया है। भारतीय जनता पार्टी के बहुत से सांसदों, विधायकों और मुख्यमंत्रियों को भी नहीं पता कि अब अपने चुनाव क्षेत्रों में उनकी स्थिति क्या रहेगी। अगले तीन महीनों में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के परिणामों से स्थिति शायद कुछ स्पष्ट हो पाए। ऐसा लगता है कि उत्तरप्रदेश के परिणाम ही एक साथ चुनावों के बारे में प्रधानमंत्री को अपना मत स्थिर करने में सहायक होंगे।

  • वर्तमान स्थितियों में एक साथ चुनावों को साकार करने में संशय और भी हैं। वे क्या हैं?
  • विमुद्रीकरण के बाद प्रधानमंत्री लोगों को लगातार अच्छे दिन और डिजीटलीकरण के बारे में बता रहे हैं। जनता उनके प्रति अब कितनी आश्वस्त है, यह कहना मुश्किल है।
  • दूसरे, अगर उनकी पार्टी उत्तरप्रदेश के चुनाव जीत भी जाती है, तब भी एक साथ चुनावों की राह आसान नहीं होगी। पूर्व में इंदिरा गांधी की सरकार ने आपातकाल के बाद सभी विधानसभाओं को यह कहते हुए भंग कर दिया था कि वे जनता में अपना विश्वास खो चुकी हैं। प्रधानमंत्री मोदी के लिए एक साथ चुनावों के नाम पर सभी विधान सभाओं को भंग करने की दलील कितनी कारगर होगी, कहा नहीं जा सकता।
  • अगर प्रधानमंत्री जोर-जबर्दस्ती के दम पर विधान सभाओं को भंग करने में सफल भी हो गए, तो इस राह में उच्चतम न्यायालय एक रोड़ा साबित हो सकता है। किसी भी विधानसभा में बहुमत पर चल रही सरकार का कार्यकाल कम करने का अधिकार उच्चतम न्यायालय नहीं देगा। अनुमान है कि उच्चतम न्यायालय संविधान के उसी ‘मूलभूत ढांचे’ का हवाला देगा, जिसका हवाला 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दिया गया था। वह यह कि ‘संसद और कार्यपालिका अपने चुनावी फायदे के लिए संविधान के मूलभूत ढांचे में छेड़छाड़ नहीं कर सकते। केन्द्रीय शासन एवं राज्यों के अधिकार, संविधान की आधारभूत प्रकृति के हिस्से हैं। इनको केन्द्र के किसी आदेश के द्वारा नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

दरअसल, केन्द्र में एकल पाटी की बहुमत वाली सरकार देश के राज्यों में भी अपनी पक्षधर सरकार की इच्छा रखती है। इसी के चलते वह संविधान के संघीय स्वरूप की उपेक्षा करते हुए कभी-कभी लक्ष्मण रेखा लांघ जाती है

।गौरतलब है कि श्रीमती गांधी ने भी राज्यों में तख्ता पलट या अपनी ही पार्टी की सरकार होने पर नेतृत्व परिवर्तन के लिए गुटबाजी को बहुत प्रोत्साहन दिया था। नरेन्द्र मोदी की सरकार भी बहुत कुछ इसी ढर्रे पर चल रही है। अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाना इसी बात का परिचायक है। कुछ भी हो, एक साथ चुनावों को यथार्थ रूप देने के लिए कई विधानसभाओं के कार्यकालों को कम करके राष्ट्रपति शासन लगाना ही पड़ेगा। इससे क्षेत्रीय भावनाओं का आहत होना भी निश्चित है। इस पर नकारात्मक प्रतिक्रिया आनी भी स्वाभाविक है। इससे प्रधानमंत्री की लोकतांत्रिक साख भी घटेगी। इससे देश को भी नुकसान हो सकता है।

इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एच.के.दुआ के लेख पर आधारित।