न्यायपूर्ण और स्वच्छ चुनावों की राह

Afeias
12 Mar 2018
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Date:12-03-18

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चुनाव सुधार का मामला ऐसा है, जहाँ समस्त राजनैतिक दल आपस में एकजुट हो जाते हैं। इसे नेताओं के हाथ में सौपे रखने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। कुछ समय से सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप करना शुरू किया है। हाल ही में लोक प्रहरी बनाम भारत सरकार के मामले में उच्चतम न्यायालय की सूचना को प्रकट किए जाने के फैसले से एक आशा की किरण दिखी है। अब उम्मीद की जा सकती है कि चुनावी दलों के वित्त-पोषण और चुनावी बांड आदि पर भी शिकंजा कसा जा सकेगा।

लगातार किए जा रहे प्रयास –

  • 2002 में उच्चतम न्यायालय ने एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में किसी चुनाव प्रत्याशी के आपराधिक रिकार्ड, शैक्षिक योग्यता एवं निजी संपत्ति को उजागर करने संबंधी निर्णय दिया था।
  • इसके 16 वर्ष बाद उच्चतम न्यायालय ने प्रत्याशियों और उनके सहयोगियों के आय के स्त्रोतों का खुलासा करने का आदेश दिया। इस आदेश के पीछे, नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विस्तार करना ही न्यायालय का मंतव्य था। इस प्रकार, किसी उम्मीद्वार की सही एवं संपूर्ण जानकारी प्राप्त होने पर ही मतदाता किसी उम्मीदवार का सही चुनाव करने में सक्षम हो सकता है।
  • भारत में राजनीतिक दलों के वित्तपोषण की जानकारी का अभाव रहता है। उन्हें 20,000 तक की राशि के सहयोग की जानकारी को गुप्त रखने का अधिकार है। इस प्रकार वे मतदाताओं से यह जानकारी साझा करने से बच जाते हैं। चुनावी बांड की नई योजना से तो राजनीतिक दल नाममात्र की जानकारी के खुलासे से भी बच जाएंगे।
  • अमेरिकी उच्चतम न्यायालय ने अपने एक फैसले में इस बात की अनिवार्यता को महसूस किया था कि उम्मीदवार के आर्थिक आधार के बारे में मतदाताओं को जानकारी होनी चाहिए। इससे उनकी चयन-शक्ति प्रभावित होती है। भारत में भी किसी उम्मीदवार को अपनी पार्टी से ही आर्थिक सहयोग मिलता है। अतः पार्टी के वित्त-पोषण या धन-स्रोतों का सीधा संबंध मतदाताओं की चयन-शक्ति को प्रभावित करने से जोड़ा जा सकता है।
  • भारत में राजनैतिक दलों के उम्मीदवार पार्टी के एजेंडे से बंधे होते हैं। दल बदल विरोधी कानून के द्वारा इसे अधिक कड़ाई के साथ अमल में लाया जा रहा है। किसी उम्मीदवार की जीत, उसकी पार्टी के एजेंडे के अंतर्गत ही मानी जाती है। ऐसे में अपने दल का निषेध करना किसी उम्मीदवार की अयोग्यता का कारण बन सकता है।

चाहे यह तर्क कितना भी दिया जाए कि राजनैतिक दलों के धन-स्रोतों की जानकारी मतदाताओं के लिए प्रासंगिक नहीं है, लोकप्रहरी के संदर्भ में दिया गया उच्चतम न्यायालय का निर्णय पारदर्शिता का विरोध करने वालों के लिए मुँहकी खाने जैसा है। अगर न्यायालय के फैसलों पर लगातार अमल होता रहा, तो चुनावी बांड की नीति को असंवैधानिक घोषित किया जा सकेगा।

‘द हिंदू‘ में प्रकाशित आराध्य सेतिया के लेख पर आधारित।

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