विधायिका एवं न्यायपालिका के टकराव पर लोकसभा के पूर्व महासचिव श्री सुभाष कश्यप के विचार
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- यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी मामले पर सुनवाई करने का विशेष अधिकार है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उसे विधि-निर्माण का भी अधिकार है।
- सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में भी कुछ गलतियाँ हो सकती हैं, जिनमें सुधार भी संभव है।
- दुर्भाग्य से आज सरकार के तीनों महत्वपूर्ण अंग अपने-अपने दायित्वों का निर्वहन करने की अपेक्षा उनका ध्यान दूसरों के मामलों में अधिक है।
- विधायिका, कार्यपालिका के कामों में अधिक रुचि ले रही है, न कि नीतियों के निर्माण में। वह कार्यपालिका की अधिक से अधिक शक्तियों को हासिल कर रही है।
- सन् 1970 के बाद से आज तक संसद में एक भी निजी सदस्य के तौर पर प्रस्तुत विधेयक पारित नहीं हो सका है। ऐसा क्यों?
- संसद में जितने भी विधेयक पारित होते हैं, उनमें 99 प्रतिशत ज्यों के त्यों पारित कर दिए जाते हैं। पता नहीं क्यों, विधेयकों पर बहस करना आवश्यक नहीं समझा जाता।
- कुछ वर्षों से सांसदों द्वारा सदन में किए जा रहे हंगामों से संसद की गरिमा को काफी ठेस पहुँची है। इससे विधायिका के प्रति जनभावनाएं मद्धिम पड़ी हैं। इसका लाभ न्यायपालिका को मिल रहा है।
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