विद्यार्थी जीवन का आधार है क्लासरुम शिक्षा

Afeias
22 Jun 2020
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Date:22-06-20

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कोविड-19 के संक्रमण को देखते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने हाल ही में विश्वविद्यालयों को एक परिपत्र जारी करते हुए , बड़े स्तर पर ऑनलाइन पाठ्यक्रम जारी करने को कहा है। इन पाठ्यक्रमों का स्वयम् ( SWAYAM) मंच के व्दारा क्रेडिट ट्रांसफर से भुगतान किया जा सकता है। सरकारी नीतियों की दृष्टि से यह हितकारी हो सकता है। हालांकि , इसके पीछे की सरकारी नियत को देखते हुए यह खतरनाक हो सकता है। 2017-18 में उच्च शिक्षा में देश का सकल नामांकन अनुपात 25.8% था , जिसे 2021 में बढ़ाकर 30% करने का लक्ष्य  रखा गया है। इस कदम का उद्देश्य ही इस लक्ष्य को प्राप्त करना लग रहा है।

अर्थशास्त्री और लेखक ब्रायन कैपलन ने एक समय पर शिक्षा में निवेश को धन और समय की बर्बादी कहा था। वहीं नोबेल विजेता थियोडार शुल्ज़ ने अमेरिका के कृषक परिवारों को अपना आधार बनाकर यह सिध्द  किया कि शिक्षा से असंतुलन को संभालने की क्षमता उत्पन्न होती है। शिक्षा से उनका तात्पर्य शिक्षण संस्थानों में जाकर सीखने की क्षमता के विकसित होने से था।

यूजीसी का आदेश तो शिक्षा के अर्थ को कमजोर करके उसकी अवस्था को सपाट करने जैसा लगता है। शिक्षा के दौरान , एक कक्षा ऐसे स्थल की तरह काम करता है , जहाँ व्यक्ति में संवाद , तर्क-वितर्क , असहमति, दोस्ती जैसे अनेक कौशल सीखे और समझे जाते हैं। हर पाठ्यक्रम में अंतर्निहित धारणा है कि कक्षा विचारों , व्याख्याओं और प्रतिवादों के परीक्षण के लिए एक प्रयोगशाला है। एक विधि और समावेशी कक्षा किसी भी सिध्दांत या अंतदृष्टि के लिए सबसे अच्छा लिटमस टेस्ट  है। जब शिक्षार्थी एक-दूसरे से मिलते हैं , और विभिन्न संकायों के विद्यार्थी एक-दूसरे से विचारों का आदान-प्रदान करते हैं , तभी उनमें उपयोगी और अप्रत्याशित अन्वेषण करने की शक्ति का उदय होता है। क्लासरूम और कैम्पस , ऐसे स्थान हैं, जो भेदभाव , सामाजिक चिंता और मंच पर होने वाले भय को हटाकर स्वैच्छिक संघों के प्रसार का मार्ग प्रशस्त करते हैं। ऐसे स्थानों के अभाव में शिक्षण और ज्ञानार्जन केवल सामग्री और उसके उपभोग तक सीमित रह जाएगा। आपसी विचार-विमर्श और विचारों की प्रतिस्पर्धा के अभाव में शिक्षा , केवल सूचना तक सीमित रह जाएगी।

ऐसी शिक्षा से मूल्यांकन के मानदंड भी प्रभावित होंगे। हो सकता है कि एक अच्छा लेक्चर उसे ही माना जाने लगे, जो बिना बफरिंग के आराम से स्ट्रीम हो सके। सामाजिक दूरी पर आधारित शिक्षा हर मायने में शिक्षा के अर्थ को कमजोर करती है। कक्षा के विकल्प में दी जाने वाली ऐसी शिक्षा केवल खानापूर्ति करती है।

इस प्रकार के मंचों को लॉकडाउन जैसी आपातकालीन स्थितियों के लिए एक विकल्प की तरह देखा जाना चाहिए। महामारी के दौर से निकलने में यह केवल उस हेलमेट की तरह काम कर सकता है , जिसे हम पुलिस के चालान से बचने के लिए पहन लेते हैं। यह जीवनरक्षक हेलमेट नहीं है।

मूल्यों की क्षति करने वाली इस शिक्षा व्यवस्था का इतना विरोध किया जाना चाहिए कि इसे हमारे जीवन का स्थायी अंग न बनाया जा सके।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित अश्विन जयंती के लेख पर आधारित। 13 जून , 2020