भारत के लिए उत्सव का क्षण है

Afeias
19 Feb 2020
A+ A-

Date:19-02-20

To Download Click Here.

नागरिकता संशोधन विधेयक के बारे में भाजपा नेताओं का कहना है कि यह किसी से उनकी नागरिकता छीनने के लिए नहीं लाया गया है, और प्रदर्शनकारियों को गलत जानकारी देकर भ्रमित किया जा रहा है। इस बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि घाघ नेता उन हजारों छात्रों और नागरिकों की मांगों को समझ नहीं पा रहे हैं। उनका संदेश, पोस्टर पर लिखे नारे, गीत, कला और भित्तिचित्रों से स्पष्ट सुनाई दे रहा है कि हम भारत के लोग, धार्मिक पहचान और नागरिकता के सम्मिश्रण को बर्दाश्त नहीं करेंगे। हम धर्मनिरपेक्षता और समानता को कमजोर नहीं पड़ने देंगे, संविधान में किए जाने वाले गैर-जिम्मेदाराना संशोधन को स्वीकार नहीं करेंगे, और हमें विभाजित करने के घातक प्रयासों को सफल नहीं होने देंगे।

जरा राजनीतिक चमत्कार तो देखिए। पिछले साढे पाँच सालों में सरकार और लोगों के बीच के जुड़ाव की शर्तें बदल गई हैं। भाजपा सरकार ने अपनी आलोचना को बर्दाश्त नहीं करने का जैसे प्रण ले लिया है। हमारे युवा भी गली-गली में इस तथ्य को गाते फिर रहे हैं कि वे राष्ट्र की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का उल्लंघन करने वाली किसी भी नीति को बर्दाश्त नहीं करेंगे। वे शासकों से खुलकर कहना चाह रहे हैं कि स्वतंत्रता संग्राम की अग्नि में तपे संवैधानिक सिद्धांतों के साथ छेड़छाड न करें। यही हमारी विरासत और संस्कृति है।

यही कारण है कि दिसंबर के मध्य में हजारों छात्र-छात्राएं विरोध में उठ खड़े हुए हैं। वे सम्ंय समाज के उस इतिहास से भी शायद ही परिचित हैं, जिसने सत्ता को हिला दिया था। और राज्यों को नष्ट कर दिया था। सिविल सोसाइटी या सभ्य समाज की अवधारणा आदर्शवादी है। सामाजिक संगठन कई पहलुओं को सफल बनाते है। इन पहलुओं में जलवायु परिवतन के प्रति जागरूकता विकसित करने, लोकप्रिय संस्कृति को विकसित करने, जरूरतमंद बच्चों का समर्थन करने, आसपास की गतिविधियों को व्यवस्थित करने, और मानवाधिकारों की रक्षा करने तक कुछ भी हो सकते हैं।

इन सबसे ऊपर, अवधारणा यह मानती है कि लोकतांत्रिक राज्य भी अपूर्ण हैं। 20वीं शती के पिछले कुछ दशकों में नागरिक सक्रियता, सूचित जनमत, और सामाजिक संघों के चलते सत्तावादी शासन को काबू में रखा जा सकता है। इस अवधारणा ने दुनिया भर में हजारों लोगों को खड़े होने के लिए प्रेरित किया है। 21वीं शती के प्रथम दशक में ही नेपाल से लेकर लीबिया तक, सत्ता-विरोधी विशाल जनसमूह ने राजशाही और अत्याचारों को समाप्त करने की मांग के लिए क्रांति की। सिविल सोसायटी का उद्देश्य सत्ता पर अधिकार करना नहीं होता है। यह काम तो राजनैतिक दलों के लिए ही छोड़ दिया जाता है। ऐसे समाज का उदय ही राजनीतिक दलों के प्रति मोहभंग के कारण हुआ है। ये तो समाज का विवेक हैं। इनके विरोध और प्रदर्शन के फलस्वरूप अनेक सत्ता धराशाही हो चुकी हैं।

नेपाल, पाकिस्तान, ट्यूनीशिया, सउदी अरब, अल्जीरिया, बहरीन, यमन, लीबिया एवं पश्चिमी एशिया के कितने ही देश हैं, जहाँ सिविल समाज के आंदोलनों ने सत्ता-पलट किया है। इनमें से कुछ देशों में सेना का शासन था, और कुछ तानाशाहों द्वारा दमित थे। इन देशों के नागरिकों को अभिव्यक्ति और समूह बनाने के मौलिक अधिकार नहीं थे। आंदोलनकारियों ने अन्यायियों को पहचाना और एक सुचारू तंत्र की मांग की। इससे असंभव को भी संभव बनाया जा सका। ट्यूनीशिया में बेन अली, मिस्त्र में होस्नी मुबारक तथा यमन में अली अबदुल्ला सलेह जैसे स्वेच्छाचारी शासकों को नीचे उतारा जा सका।

जून 2019 से हांगकांग भी इसी प्रकार के एक आंदोलन का संचालन कर रहा है। चीन के मनमाने कानूनों के विरूद्ध शुरू हुआ यह आंदोलन, सत्तावादी शासन के विरूद्ध और प्रजातंत्र के समर्थन में एक क्रांति बन चुका है।

हमें इस बात की थोड़ी भी चिंता नहीं करनी चाहिए कि भारत में इस प्रकार के आंदोलन का नेतृत्व कौन करेगा। न ही हमें यह सोचना चाहिए कि यह किस ओर जा रहा है। इतना ही काफी है कि एक विभाजनकारी और सत्तावादी होती सरकार के विरूद्ध लोग एकजुट हो रहे हैं। इसके अलावा सिविल समाज संगठनों, नेतृत्व और लक्ष्यों से बचकर चलता है। संगठन का रास्ता नौकरशाही की ओर जाता है। नेता बने लोग जल्द ही तानाशाह हो जाते हैं, और किसी जटिल समाज के लक्ष्यों की खोज कोई एजेंट नहीं कर सकता। सिविल समाज का काम कोई युद्ध लड़ना नहीं है। उनका काम लोगों को सरकार के गलत-सही कामों के प्रति जागरूक करना है। किसी सत्तावादी देश में सिविल समाज का काम प्रवाह और सामूहिक संचालन को बनाए रखना होता है। उसका हथियार संविधान है। उसकी मांग संवैधानिक नैतिकता का आदर करने की है। सिविल समाज कोई संस्था नहीं होता। वह एक विस्तार है, जिसमें प्रजातंत्र को बहाल करने की बहुत सी योजनाएं काम करती हैं। वर्तमान में चल रहा प्रदर्शन भारत के सिविल समाज का क्षण है। इसका उत्सव मनाया जाना चाहिए।

‘द इंडियन एक्सप्रेस‘ में प्रकाशित नीरा चंडोक के लेख पर आधारित। 31 जनवरी, 2020

Subscribe Our Newsletter