बालकृष्ण दोशी

Afeias
23 Mar 2018
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Date:23-03-18

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हाल ही में भारत के जाने-माने वास्तुकार बालकृष्ण दोशी को प्रित्सज़र वास्तुकला पुरस्कार प्रदान किया गया है। यह पुरस्कार नोबेल के समकक्ष माना जाता है।

70 वर्षों के अपने करियर में उन्होंने फ्रांस के जाने-माने वास्तुकार ल कोरबुज़ियर से बहुत कुछ सीखा। अपनी प्रतिभा और प्रशिक्षण के दम पर उन्होंने भारतीय वास्तुकला के इतिहास में अपना सफल स्थान बना लिया। वे स्वयं लिखते हैं, ‘‘मैंने ल कोरबुज़ियर से जलवायु, परंपरा, कार्यशैली, ढाँचों, अर्थव्यवस्था और परिदृश्यों का अवलोकन और प्रतिक्रिया करना सीखा है।’’ इसी को आधार बनाकर लगभग 60 वर्षों से वे एक व्यवसायी, शिक्षाविद्, कलाकार और शिक्षक की भूमिका निभाते चले आ रहे हैं।

ऐसे वास्तुकार बहुत कम होते हैं, जो अकेले दम पर समाज में किसी प्रकार का बदलाव ला सकें। बालकृष्ण दोशी की सभी चार अधूरी और पूर्ण परियोजनाओं में ऐसी विशेषता है, जिसमें केवल आवश्यकताओं की भरपाई करने की अनुभूति नहीं होती, बल्कि रहने और काम करने योग्य अनुभूति होती है।

उनकी प्रारंभिक परियोजनाओं; जैसे अहमदाबाद टैगोर मेमोरियल हॉल और इंस्टीट्यूट ऑफ इंडोलॉजी में कोरबुज़ियन आधुनिकता का खुला रूप मिलता है। बाद के वर्षों में लुई कान से जुड़ने के बाद उनके बनाए द सेन्टर फॉर एनवायरोमेंटल प्लानिंग एण्ड टेक्नॉलॉजी में इटों और कंक्रीट से कुछ ऐसा बनाया गया है, जो परिदृश्यों से जोड़ता है। उन्होंने डिजाइन और उनके विस्तार को स्थानीय पद्धति से तैयार किया है। यही उनकी विशेषता रही है।

यदि हम इतिहास में झांकें, तो फतेहपुर सीकरी और मांडू की इमारतों में जिस प्रकार बरामदों और आंगनों के साथ भूमि और आकश, वायु और छाँव के तादात्म्य का ध्यान रखा जाता था, बालकृष्ण दोशी ने उसे ही प्रासंगिक बनाकर अपनी कला में ऊभारा है। वे अपनी कला की बुनियाद प्रकृति से जोड़कर बनाते हैं। स्टायल और फैशन उनके लिए कोई मायने नहीं रखते।

1995 में चित्रकार एम.एफ.हुसैन के साथ उन्होंने एक भूमिगत कला वीथिका तैयार की थी, जिसे ‘अमदावाद नी गुफा’ का नाम दिया गया है।

बालकृष्ण दोशी ने अपनी वास्तुकला से यह सिद्ध कर दिया कि समकालीन इमारतों के डिजाइन भी ऐसे वे बनाए जा सकते हैं, जो हर इमारत में व्यक्ति को मंदिर जैसा आध्यात्मिक अनुभव दे सकें। वास्तुकला के क्षेत्र में उनका यह योगदान अभूतपूर्व है, और सदियों तक याद किया जाता रहेगा।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित गौतम भाटिया के लेख पर आधारित।

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