फसल बीमा योजना को व्यापक बनाया जाना चाहिए

Afeias
18 Oct 2018
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Date:18-10-18

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केरल की बाढ़, उत्तर-पूर्वी और पूर्वी भारत में वर्षा की कमी से हुए फसलों के भारी नुकसान ने एक बार फिर से गरीब किसानों को सामाजिक सुरक्षा देने का प्रश्न खड़ा कर दिया है। मौसम से जुड़े खतरों की मार से किसानों को बचाने के लिए 2016 में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना फसलों पर आई लगभग पूरी लागत का बीमा करती है। यही कारण है कि 2016 में इस योजना के अंतर्गत 2 लाख करोड़ रुपये की राशि से 5.7 करोड़ किसानों को बीमा से जोड़ा जा सका।

इस योजना की कुछ कमियों के कारण आज तक इसका 100 प्रतिशत लाभ किसानों को नहीं मिल सका है। फसल के नुकसान के अनुमान का पुराना तरीका, भुगतान के दावे में देर होना, प्रीमियम की ऊँची दर एवं पूरी योजना का लचर क्रियान्वयन, कुछ ऐसी कमियां हैं, जिनके चलते लगभग एक करोड़ किसानों ने योजना से दूरी बना ली है। इसका नतीजा यह हुआ कि राज्यों ने अपने स्तर पर कुछ नई योजनाएं शुरू कर दी हैं, जैसे बिहार सरकार ने ‘बिहार राज्य फसल सहायता योजना’ शुरू की है। प्रत्येक किसान को मौसम की मार से बचाने के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना की कमियों को दूर करके निरंतर विकास की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।

दावों का निपटारा जल्दी और यथोचित किया जाए

फसल की हानि का अनुमान लगाने के लिए अभी तक जो साधन अपनाए जा रहे हैं, वे परंपरागत एवं मानव संसाधन पर आधारित हैं। इनमें धन का अपव्यय भी बहुत होता है। वर्तमान तकनीकों में उपलब्धस मौसम के डाटा, रिमोट सेंसिंग, मॉडलिंग एवं बिग डाटा एनालिटिक्स के माध्यम से फसल की वृद्धि और उत्पादकता का सटीक अनुमान लगाया जा सकता है। हाइब्रिड सूचकांक में फसल से जुड़ी सभी तकनीक का समावेश है। इसके माध्यम से फसल के नुकसान का सही और जल्द अनुमान लगाया जा सकता है। इन तकनीकों का इस्तेमाल करके विभिन्न स्तरों पर होने वाले नुकसान का अनुमान लगाना आसान हो जाता है। मॉनिटरिकंग की समस्त प्रक्रिया को किसानों के लिए सुगम और पारदर्शी रखा जा सकता है।

छोटे बीमा धारकों के लिए यूनिवर्सल और निःशुल्क कवरेज

अधिकतर राज्यों के जलवायु परिवर्तन से सर्वाधिक प्रभावित क्षेत्रों में; जहाँ छोटे किसानों को बीमे की सबसे अधिक आवश्यकता है, किसानों को योजना की बहुत कम या आधी-अधूरी जानकारी है। किसानों को पंजीकरण का सही तरीका ही पता नहीं होता। अतः हमें ऐसी नीति बनानी होगी, जिसमें राज्य पंजीकरण सूची में किसान का स्वतः पंजीकरण हो जाए। इससे उन्हें पूर्ण सामाजिक सुरक्षा मिल सकेगी।

वर्तमान में, किसानों को प्रीमियम का 1.5-2 प्रतिशत देना होता है। बाकी की राशि केन्द्र व राज्य सरकारें वहन करती हैं। इस दर पर 14 करोड़ किसान 10,999 करोड़ रुपये का प्रीमियम प्रतिवर्ष देते हैं। अगर छोटे व कमजोर किसानों से यह भी नहीं लिया जाए, तब भी यह राजस्व एकत्रित किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में कवरेज पूरा 100 प्रतिशत हो जाएगा। शहरी क्षेत्रों में ऐसी प्रक्रिया बिजली और पानी के लिए चलाई जा रही है।

बीमा योजना पारदर्शी हो

बीमा कंपनियों में से सबसे कम दर का टेंडर भरने वाली कंपनी को अनुबंधित किया जाता है। कई बार एक ही क्षेत्र और एक ही ऊपज के लिए कंपनियां 3 प्रतिशत से लकर 50 प्रतिशत तक अपने दरों में भिन्नता रखती हैं। क्योंकि कंपनियां कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहतीं, इसलिए वे प्रीमियम में ही अनेक शुल्क जोड़ देती हैं। विज्ञान और तकनीक में इतनी क्षमता है कि वह विभिन्न स्तरों पर आ सकने वाले खतरों का अनुमान लगाकर प्रीमियम की दर तय करने में कंपनियों की मदद कर सके। इससे सरकार पर सब्सिडी का बोझ काफी कम हो जाएगा।

अभी कृषि में जलवायु परिवर्तन से होने वाले संभावित खतरों आदि के प्रबंधन के लिए सरकार 50,000 करोड़ का प्रतिवर्ष खर्च कर रही है। इसमें सूखे से राहत तथा आपदा राहत कोष जैसी अन्य सब्सिडी शामिल हैं। कृषि-ऋण को माफ करके सरकार पर अतिरिक्त बोझ आ पड़ता है। अतः सामाजिक सुरक्षा योजना को व्यापक स्तर पर ऐसे चलाया जाना चाहिए, जिससे सब्सिडी को अधिक तर्कसंगत बनाया जा सके।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित प्रमोद अग्रवाल के लेख पर आधारित। 17 सितम्बर, 2018

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