पत्रकारिता की विश्वसनीयता पर खतरा

Afeias
11 Sep 2017
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Date:11-09-17

 

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हमारे देश का चैथा स्तंभ मानी जाने वाली पत्रकारिता आज ऐसे गर्त में गिरती जा रही है, जिससे प्रजातंत्र को एक तरह का खतरा पैदा हो गया है। प्रेस की स्वतंत्रता को बाहरी खतरों के बजाय अंदरूनी खतरों से बचाए जाने की जरूरत आन पड़ी है।

  • समाचार पत्रों में धन के जोर पर समाचार छपवाने का काम जोरों पर चल पड़ा है। इस बीमारी से लगभग कोई भी समाचार पत्र अछूता नहीं है।
  • हाल ही में हुए उत्तरप्रदेश और पंजाब के चुनावों के दौरान चुनाव आयोग के पास ‘पेड न्यूज’ के अनेक मामले दर्ज किए गए। इस मामले में कोई पार्टी अलग नहीं है। मध्यप्रदेश के नरोत्तम मिश्रा का ही मामला एकमात्र ऐसा है, जिसे ‘पेड न्यूज’ छपवाने के कारण विधानसभा की सदस्यता के अयोग्य ठहराया गया।
  • ‘एडवरटोरियल’ के नाम पर वास्तविक रिपोर्ट और धन लेकर छापी गई रिपोर्ट के बीच के भेद का मिटा दिया गया है।
  • बड़े-बड़े समाचार पत्र भी अपने मार्केटिंग विभाग के लोगों को किसी उत्पाद या हस्ती के कार्यक्रमों में अपने रेट कार्ड लेकर भेजते हैं। धन प्राप्त होने के अनुसार उनकी खबरों को अखबारों या मीडिया के अन्य साधनों में जगह दी जाती है। नीचे एक कोने में छोटे-छोटे न पढ़ने योग्य अक्षरों में ‘एडवरटोरियल’ लिख दिया जाता है। प्रेस काउंसिल के अध्ययन में एक ऐसी खबर के बारे में बताया गया, जिसमें किसी सरकारी नीति का लाभ मिलने वाली कंपनी ने उस खबर को कई सप्ताह तक अखबार में छपवाने में सफलता प्राप्त की।
  • पत्रकारों के एक संघ ने 18 देशों में पत्रकारिता के अध्ययन के बाद बताया है कि आज किस प्रकार भ्रष्टाचार और अपने हित साधने के चक्कर में इस सशक्त स्तंभ का नाश हो चुका है।
  • टी आर पी एक ऐसा पैमाना है, जिससे अखबारों और दृश्य-श्रव्य माध्यमों को अधिक विज्ञापन मिलने की संभावना रहती है। अधिक विज्ञापन का अर्थ है, अधिक आय। इसके कारण आज जगह-जगह टी आर पी विशेषज्ञ पैदा हो गए हैं।
  • कार्पोरेट जगत ने प्रिंट मीडिया और टेलीविजन; दोनों पर ही पूरी तरह से कब्जा कर रखा है। इस जगत में इनका ही बोलबाला है। चूंकि इसमें इनका धन लगा हुआ है, अतः ये बड़ी सावधानी से दबंग लगने वाली खबरों को ऐसे प्रकाशित करते या दिखाते हैं, जिससे सनसनी तो बनी रहे, परन्तु इन पर कोई आंच न आए।
  • ऐसे जगत में संपादकीय विभाग पर मालिकों का बहुत दबाव बना रहता है। इसका दूसरा पक्ष भी है। कई जगह प्रबंधन, मालिकों पर पूरी तरह से हावी है। इन मामलों में अब ब्लैकमेल करने में भी कोई झिझक नहीं रह गई है।
  • रिश्वत लेने वाले रिपोर्टर तथा राजनैतिक आश्रय में पलने वाले रिपोर्टर अपने वरिष्ठ संपादक पर ही चढ़े रहते हैं। कई जगह तो संपादकों के बीच ही गुट बने हुए हैं।
  • प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया एक निष्क्रिय सी संस्था बनकर रह गई है, जिसकी कोई नहीं सुनता।

सुधार के उपाय

  • सर्वप्रथम, वरिष्ठ पत्रकारों को इस क्षेत्र में आगे आना होगा। उन्हें अपने क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध खुलकर बोलने की हिम्मत जुटानी होगी।
  • क्रास होल्डिंग पर लगाए गए मालिकाना प्रतिबंधों को कानूनी जामा पहनाना होगा। भारतीय दूरसंचार नियमन प्राधिकरण ने उपभोक्ता, भौगोलिक क्षेत्र या भाषाओं के आधार पर 32 प्रतिशत का अधिकतम मार्केट शेयर रखने की अनुशंसा की थी।
  • प्रबंधन एवं संपादकीय विभाग के बीच दूरी रखने के लिए कानून बनाए जाएं।
  • यह तभी संभव होगा, जब पत्रकारों को अंतरराष्ट्रीय श्रम मानकों के अनुसार नौकरी मिलते समय ही अनुबंध दिया जाएगा। उन्हें यह अधिकार हो कि वे अपनी अंतरात्मा या अपने पेशे के नियमों के विरुद्ध आने वाले किसी काम को करने से मना कर सकें।
  • मीडिया के प्रसार और रेटिंग को जांचने के लिए विशुद्ध एवं पारदर्शी व्यवस्था होनी चाहिए।
  • पेड-न्यूज, विचारों या हितों में मतभेद होने पर इसका खुलासा खबर के आखिर में किया जाना चाहिए।
  • इन सभी सुधारों को अमल में तभी लाया जा सकता है, जब इसके लिए कोई दण्डात्मक विधान हो। उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में इस पर विचार किया जाएगा।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित अभिषेक सिंघवी के लेख पर आधारित।

 

 

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