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न्यायालय की अवमानना
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हाल ही में जिस प्रकार कावेरी नदी विवाद को लेकर कर्नाटक सरकार ने लगातार उच्चतम न्यायालय के आदेश की अवज्ञा की है, उसको लेकर बहुत से सवाल उठ रहे हैं। कहा जा रहा है कि सरकार को तो कानून की रक्षा करने में सर्वोपरि होना चाहिए। जब वही कानून तोड़ने वाली बन जाए, तो क्या हर नागरिक अपने कानून स्वयं बनाने और तोड़ने नहीं लगेगा? दूसरे, अगर सरकार न्यायालयों की अवमानना बार-बार करने लगे, तो न्यायालय को क्या करना चाहिए?
कुछ सुझाव
- न्यायालय को चाहिए कि वह सरकार के किसी भी मामले में कोई आदेश या निर्णय देने से पहले विवाद में लिप्त लोगों की पहचान करे। अभी होता यह है कि न्यायालय जिला प्रशासन या राज्य सरकार या अन्य मंत्रालय के लिए आदेश जारी कर देता है। इससे किसी व्यक्ति पर जिम्मेदारी या जवाबदेही का भार नहीं आता। आदेश पूरा न हो पाने की स्थिति में न्यायालय भी किसी व्यक्ति विशेष को दोषी करार न देकर तंत्र पर ही आरोप डाल देता है। तब ऐसा नहीं होगा। आदेश का पालन न होने की स्थिति में न्यायालय संबंद्ध व्यक्ति से पूछताछ करके उसे जिम्मेदार ठहरा सकेगा। अभी हाल ही में न्यायालय ने दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री पर 25 हजार का व्यक्तिगत जुर्माना लगाकर ऐसा उदाहरण भी प्रस्तुत किया है।
- कुछ समय से बहुत से सामाजिक मामलों में भी न्यायालय के दखल की स्थिति आ रही है। चाहे वह समलैंगिता का मामला हो या धार्मिक मान्यताओं की बात हो, समाज में विभिन्न समुदायों के बीच बार-बार टकराव की स्थिति आती रहती है। प्रशासन एवं सामाजिक या धार्मिक संस्थाएं ऐसे मामलों को निपटाने में विफल रहती हैं। इन मामलों पर न्यायालय की शरण लेने के बावजूद यह देखने में आता है कि न्यायालय के आदेश का ठीक तरह से पालन नहीं किया जाता। ऐसी स्थितियों के लिए भी न्यायालय को कड़ा रुख अपनाते हुए यह स्पष्ट करना होगा कि न्यायालय का कोई भी आदेश कानून की तरह ही माना जाए। उसके बाद उस मसले पर विवाद की कोई गुंजाइश न रहे। जब तक स्वयं न्यायालय ही उस पर पुनर्विचार न करना चाहे, तब तक उसके आदेश का पूरी तरह पालन हो।आने वाले समय में अगर न्यायालय की इसी प्रकार अवमानना होती रही तो प्रजातंत्र के महत्वपूर्ण अंग न्यायपालिका के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। इसलिए जल्द से जल्द न्यायालयों को ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित एन.एल.राजा के लेख पर आधारित।
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