न्यायालयों का सीमा रेखा को लांघना कितना उचित है?
Date: 01-06-16
न्यायालयों का सीमा रेखा को लांघना कितना उचित है?
हाल के कुछ वर्षों में या कह लें पिछले 25-30 सालों में, हमारी न्यायिक व्यवस्था में जो बदलाव आया है, उस पर बहुत से लोगों ने ऊंगली उठाई है। इन लोगों का कहना है कि न्यायालय ने मानव जरूरतों को एक तरह से मनवाधिकार की तरह प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है।
गौर करने वाली बात है कि आज के भारतीय संदर्भ में हमारा संविधान सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अनुच्छेद 32 और 136 तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को अनुच्छेद 226 के अंतर्गत मौलिक अधिकारों की रक्षा का संवैधानिक दायित्व देता है।
संविधान के भाग चार में यह भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अनुच्छेद 37 में दिए गए नीति निर्देशक सिद्धांतों का नागरिकों के हित में क्रियान्वयन का दायित्व सरकार और अधिकारियों पर जाता है।
सन् 1986 से सरकार इन नीति निर्देशक सिद्धांतों के क्रियान्वयन में जब भी विफल या कमजोर दिखाई दी है, तभी न्यायालयों को अनुच्छेद 37 का अतिक्रमण कर नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए आगे आना पड़ा है। न्यायालयों का यह अतिक्रमण एक अच्छे उद्देश्य के लिए रहा है।