नवोन्मेषी भारत के लिए

Afeias
24 May 2019
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Date:24-05-19

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भारत में नवोन्मेषता का अभाव है। यहाँ फिलहाल रिलांयस इंडस्ट्रीज और टी.सी.एस. ही दो ऐसी कंपनियां हैं, जो विश्व के 100 अरब डालर बाजार में जगह बना सकी हैं। अमेरिका की एप्पल, माइक्रोसॉफ्ट और अमेजोन जैसी तीन कंपनियों का सकल घरेलू उत्पाद ही भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद के बराबर है। चीन की अलीबाबा कंपनी का सकल घरेलू उत्पाद महाराष्ट्र के बराबर है।

जिस तरह से भारत विश्व की तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में अपना स्थान बना रहा है, और अगले पाँच वर्षों में उसका लक्ष्य तीन श्रेष्ठ अर्थव्यवस्थाओं में आने का है, उस हिसाब से उसे सेवा और उपभोग आधारित अर्थव्यवस्था से निकलकर नवोन्मेष और ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था की ओर कदम बढ़ाने चाहिए।

अमेरिका तो शुरू से ही अनुसंधान और नवोन्मेष का प्रतीक रहा है। चीन ने पिछले एक दशक से ही इस क्षेत्र में प्रगति की है।

चीन और भारत में नवोन्मेषता से जुड़े कुछ तुलनात्मक तथ्य

  • ग्लोबल इनोवेशन इंडैक्स में जहाँ चीन 17वें स्थान पर है, वहीं भारत का स्थान 57वाँ है।
  • चीन की ओर से 21 प्रतिशत अंतरराष्ट्रीय पेटेंट दाखिल किए जाते हैं, जबकि भारत की ओर से मात्र 1 प्रतिशत।
  • चीन के सकल घरेलू उत्पाद का 2 प्रतिशत नवोन्मेषता पर खर्च होता है, जबकि भारत का मात्र 0.7 प्रतिशत खर्च होता है।
  • प्रति दस लाख की जनसंख्या पर चीन में 1,113 अनुसंधान विशेषज्ञ हैं, वहीं भारत में इनकी संख्या 218 है।
  • चीन और अमेरिका में अनुसंधान पर सरकार का मात्र 30 प्रतिशत ही खर्च होता है, जबकि भारत में स्थिति उल्टी है। यहाँ 75 प्रतिशत खर्च सरकार ही करती है। निजी क्षेत्र का निवेश बहुत ही कम है।

क्या किया जाना चाहिए

  • भारत में निजी क्षेत्र को घरेलू उत्पाद में या संस्थानों के साथ एक समझौते के तहत अन्वेषण और अनुसंधान में निवेश करने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  • भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1 प्रतिशत उच्च शिक्षा संस्थानों पर खर्च करता है। इस राशि का अधिकांश भाग राज्य व केन्द्र स्थित विश्वविद्यालयों का खर्च चलाने के काम आता है। वर्तमान सरकार ने इस व्यवस्था में थोड़ा परिवर्तन करके सार्वजनिक संस्थानों को अपने वित्त पोषण के स्रोत पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया है। इससे सरकारी अनुदान का इस्तेमाल संस्थानों में अनुसंधान के लिए किया जा सकेगा। इससे दीर्घावधि में संस्थानों और सरकार; दोनों को लाभ होगा।

उत्तरोत्तर सरकारों ने सरकारी नीति का अनुसरण करके उच्च शिक्षा के कुछ संस्थानों में निजी भागीदारी को बढ़ावा दिया है। नतीजतन देश में 340 ऐसे अच्छे निजी उच्च शिक्षा संस्थान पनप गए हैं, जिनमें देश के 70 प्रतिशत से अधिक विद्यार्थी पहुँच रहे हैं। फिर भी अनुसंधान और विकास के क्षेत्र में सरकारी भेदभाव चलता ही रहता है। देश के कुछ निजी संस्थान तो नेशनल इंस्टीट्यूट रैंकिंग फ्रेमवर्क या क्यू एम वल्र्ड यूनिवर्सिटी या टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग में ऊँचा स्थान प्राप्त करने में सफल भी हुए हैं।

  • अगर अनुसंधान के क्षेत्र में दिए जाने वाले सरकारी अनुदान को संस्थानों के स्वामित्व के आधार पर न देकर प्रदर्शन के आधार पर दिया जाए, तो अनुसंधान की गति और भी बढ़ सकती है।
  • केवल अनुसंधान से भी बात नहीं बन सकती। संस्थानों को इसे व्यावहारिक स्तर पर जाँच-परख की ओर ले जाना होगा। इसके लिए संस्थानों और उद्योगों का सामंजस्य जरूरी है। भारतीय विश्वविद्यालयों को पेटेंट न मिलने की कमी का बहुत बड़ा कारण यह है कि इनके द्वारा किए गए अनुसंधान वास्तविक जगत् के लिए उपयोगी सिद्ध नहीं होते।

जर्मनी में फ्रानहोफर जैसी समितियों का विकास इसी उद्देश्य को लेकर हुआ है कि वे अकादमिक अनुसंधानों और उनकी उपयोगिता को जाँच सकें।

नीति निर्माताओं को ऐसी नवोन्मेष प्रसन्वित नीतियाँ बनानी चाहिए, जो हमारे प्रतिभा पलायन को उलट सकें, भारत में रोजगार के अवसर उत्पन्न कर सकें और हमारे स्टार्टअप में विदेशी निवेश को बढ़ा सकें। इस हेतु केन्द्र व राज्य स्तर पर एक अलग विभाग की स्थापना की जानी चाहिए, जो अनुसंधान और नवोन्मेषता को प्रोत्साहित करते हुए निजी भागीदारी को इस प्रकार से विकसित करे कि उममें सरकारी हस्तक्षेप कम हो, तथा अनुकूलता ज्यादा हो।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित सचिन जैन के लेख पर आधारित। 7 मई, 2019