दक्षिण एशिया के पर्यावरण की रक्षा
Date:25-06-18 To Download Click Here.
दक्षिण एशियाई क्षेत्र में तेजी से पारिस्थितिकीय तंत्र का विनाश हो रहा है। हाल ही में आसियान देशों की सक्रियता के कारण उनके बीच आर्थिक प्रगति के संकेत मिल रहे हैं। इस आर्थिक विकास की कीमत पर्यावरण और धारणीयता को चुकानी पड़ रही है। परिणामतः दक्षिण एशिया को ग्लोबल वार्मिंग, शहरों पर बढ़ते बोझ, वनों की कटाई, पानी की कमी और प्रदूषण के रूप में इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है।
प्रकृति निर्बाध होती है। वन्य-जीवन, रोग वेक्टर एवं नदियों का बहाव सीमाओं का गुलाम नहीं होता। अतः इन मुद्दों को अंतर-देशीय स्तर पर सुलझाए जाने की जरूरत है। चूंकि इस क्षेत्र में भारत एक बहुत बड़ा ऐसा देश है, जिसका प्रदूषण स्तर खतरनाक है, उसे चाहिए कि एशिया के इस क्षेत्र के प्रति वह अपनी जिम्मेदारी निभाए।
- बिहार राज्य ने भवन निर्माण उद्योग को बढ़ावा देने के लिए नेपाल की शिवालिक पहाड़ियों का बेहिसाब खनन जारी कर रखा है। इससे बिहार में ही भयंकर बाढ़ आती है, बंजर भूमि बढ़ रही है, और जलीय कमी हो रही है।
- भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल में वायु-प्रदूषण अक्सर खतरनाक स्तर पर पहुँच जाता है। परन्तु कम करने को लेकर इन देशों के बीच अब तक कोई आम सहमति नहीं बन पाई है।
- वन्य-जीवन का विचरण लगातार बाधित होता जा रहा है।
- शहरीकरण और औद्योगीकीकरण की बढ़ती मांग के साथ क्षेत्र में जल की कमी होती जा रही है। इन देशों की कृषि अभी भी उप-निवेशकालीन कृषि व्यवस्था पर चल रही है, जिसमें खेतों को पानी से भरकर रखा जाता था। ड्रिप सिंचाई का चलन बहुत कम है।
- आर्थिक और जनसांख्यिकीय कारणों से नदियों का दम निकाला जा रहा है। उत्तराखंड में गंगा और सिक्किम में तिस्ता का पथ पथरीला रह गया है। नेपाल तथा भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों की अन्य नदियों के भविष्य को भी मोडकर बिगाड़ दिया गया है। हमारी नदियां नालों में परिवर्तित होती जा रही हैं।
- जहाँ-तहाँ राजमार्ग बनाने के नाम पर प्राकृतिक निकासी प्रणाली को बाधित किया जा रहा है।
- पहाड़ों पर बड़े बांध बनाए जाने से पहले बादल फटने की स्थिति से निपटने पर कोई अध्ययन व समाधान नहीं किया जा रहा है।
- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने दक्षिण-एशियाई देशों को समुद्री जल स्तर के बढ़ने से आने वाली खतरों के प्रति पहले ही सावधान कर दिया है। हिंद महासागर क्षेत्र में सिंधु, इरावती और गंगा-ब्रह्मपुत्र के डेल्टा को सर्वाधिक खतरा है। इस क्षेत्र में जनसंख्या का घनत्व बहुत अधिक है।
- मध्य हिमालय क्षेत्र के वातावरण में ‘ब्राउन क्लाउड’ के कारण तेजी से बर्फ पिघलने का सिलसिला जारी है। यह बादल ब्लैक कार्बन का बना हुआ है, जिसमें कूड़ा व लकड़ी जलाने, वाहन व ठूंठ जलाने का धुंआ एकत्रित हो जाता है।
समाधान
- फिलहाल, वनों एवं परिदृश्यों के संरक्षण का जिम्मा स्थानीय वनवासियों के ऊपर है। इसी कड़ी में दक्षिण के वनों का संरक्षण वहाँ के आदिवासी कर रहे हैं, और तिस्ता को बचाने का प्रयास लेपचा जाति कर रही है।
- सामाजिक कार्यकत्ताओं को चाहिए कि वे पर्यावरणीय विनाश के आर्थिक नुकसान का अनुमान लगाकर लोगों को बताएं। इस दिशा में स्थानीय संस्थाओं में जागरूकता लाएं। साथ ही प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयास करें।
- प्रशासन और समाज में ही एक पर्यावरणीय प्रणाली का विकास होना चाहिए।
- पारिस्थितिकीय धारणीयता के लिए काम को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। स्थानीय प्रशासन को इस दिशा में अधिकार दिए जाएं।
जब धरातल से जैविक पर्यावरण का उदय होगा, और वह इसकी रक्षा के लिए प्रशासन को जिम्मेदार ठहराने लगेगा, उस समय दक्षिण एशिया के लोगों को उचित संरक्षण मिल सकेगा।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित कनकमणी दीक्षित के लेख पर आधारित। 5 जून, 2018