त्रिस्तरीय परिवर्तनों की आवश्यकता
Date:18-08-17
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वर्तमान सरकार के तीन वर्षों में देश ने अभूतपूर्व प्रगति की है। नीति आयोग और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की मानें, तो सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि दर एक बार फिर से विश्व की बेहतर अर्थव्यवस्थाओं के समकक्ष रही है। परन्तु इस वृद्धि दर पर भी आज भारत रोजगार के अवसरों में उतनी वृद्धि नहीं कर पा रहा है, जितनी कि उसे कर लेनी चाहिए। भारत की अर्थव्यवस्था एवं प्रशासन में और अधिक गतिशीलता लाने के लिए तीन स्तर पर सुधार किए जाने चाहिए।
- न्यायिक प्रक्रिया – किसी समाज का उद्धार तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक कि वहाँ उचित और तीव्र न्यायिक प्रक्रिया न हो। सालों लंबित पड़े मामलों के निपटान के लिए प्रक्रिया में सुधार की अत्यधिक आवश्यकता है। ऐसी व्यवस्था का सामाजिक न्याय पर तो बुरा असर पड़ता ही है, प्रवर्तनीयता के कारण अर्थव्यवस्था भी जकड़ी हुई रहती है।
- न्यायिक सुधारों का अंतिम प्रयास 2015 में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना में किया गया था। इसकी स्थापना में सभी दलों की सहमति भी थी। परन्तु अब इसके अभाव में न्यायाधीशों की नियुक्ति दूर की बात दिखाई पड़ती है।
- प्रशासनिक सुधार -19वीं शताब्दी में शुरू की गई प्रशासनिक सेवा का उद्देश्य औपनिवेशिक जरूरतों को पूरा करना था। 21वीं शताब्दी के भारत की जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं के अनुसार इसकी संरचना में परिवर्तन नहीं किए गए हैं। यद्यपि इसमें देश भर के दीप्तिमान युवा भर्ती किए जाते हैं, परन्तु इनका ज्ञान इनके कार्यक्षेत्र की विशेषज्ञता से जुड़ा हो, यह आवश्यक नहीं है। कार्य अकुशलता के बावजूद सुरक्षित नौकरी की तसल्ली, पद पर अल्पकालिक नियुक्ति, वरिष्ठता के आधार पर पदोन्नति आदि ऐसे पहलू हैं, जिनके कारण इन तेज दिमाग वाले युवाओं की कार्यक्षमता का सही उपयोग नहीं हो पाता है।
- प्रधानमंत्री ने इस व्यवस्था में सुधार करने की पहल की है। खराब प्रदर्शन की स्थिति में इनके लिए दंड का प्रावधान किया गया है। पहली बार इनके कार्यों के मूल्यांकन के लिए साथियों एवं अधीनस्थों से प्रतिक्रिया लेने की शुरूआत की गई है। भारतीय प्रशासनिक सेवा के पदों को अलाईड सेवाओं में स्थानांतरित किया जा रहा है। ऐसा अनुमान है कि इन पदों पर नौकरशाही के अतिरिक्त बाहरी विशेषज्ञों को लाया जाएगा। ऐसा करने की सिफारिश बहुत समय से की जा रही थी।
- श्रम कानून – रोजगार के अवसरों को बढ़ाने में हमारे अनुत्पादक श्रम कानून बड़ी बाधा हैं। खासतौर पर इन कानूनों के कारण निर्माण उद्योग वृद्धि दर पिछले तीन दशकों से एक ही स्तर पर रुकी हुई है। अर्थशास्त्री जगदीश भगवती एवं अरविंद पनगढ़िया पहले ही इन 200 श्रम कानूनों की निरर्थकता की बात कह चुके हैं। केन्द्र सरकार एवं कुछ राज्य सरकारें इन बाधाओं को दूर करने की दिशा में कदम उठा रही हैं। परंतु नौकरियों के संकट के सामने ये प्रयास तुच्द हैं। इससे निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर क्रांतिकारी प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित वैजयंत जे. पंड्या के लेख पर आधारित।
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