जब रक्षक ही भक्षक बन जाए तो…….

Afeias
23 Jul 2020
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Date:23-07-20

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हाल ही में तमिलनाडु में पुलिस हिरासत में एक पिता और पुत्र की मृत्यु ने देश की पुलिस और न्याय-व्यवस्था के लिए प्रश्ने खड़े कर दिए हैं। देश भर में इस बात को लेकर तनाव है कि क्या अब रक्षकों की भी चौकसी करनी पड़ेगी। इस संबंध में 1987 में डी. के. बसु के निर्णयों की याद महत्वपूर्ण हो जाती है। इसकी शुरूआत 1986 के एक पत्र से हुई थी , जो बाद में पी आई एल बन गया था। इसके माध्यम से 1996 , 2001 में दो बार और 2015 में 20 आदेशों को लागू करते हुए चार महत्वपूर्ण और व्यापक निर्णय दिए गए।

इसने कम से कम पाँच अन्य प्रक्रियात्मक, निगरानी और समन्वयात्मक न्यायिक आदेश की सर्वश्रेष्ठ परंपरा का नेतृत्व किया। इससे हिरासत में होने वाली मौतों और प्रताड़ना को कम करने के लिए कानूनी सिध्दांतों और तकनीक का एक नेटवर्क बना दिया गया है। फिर भी आज हम डी के बसु की भावना को संचालन के स्तर पर , दंडात्मक उपायों में , अंतिम लक्ष्य  के कार्यान्वयन में , भ्रष्ट  और भक्षक बने पुलिसकर्मियों के साथ बनी अंतर्विभागीय एकजुटता को तोड़ने और प्रभावपूर्ण विभागीय कार्यवाही सुनिश्चित करने में नाकाम पा रहे हैं।

इस निर्णय ने उपचार के बिना अधिकार के निरर्थक होने के सिध्दांत को लागू किया था। ऐसा देखा जाता है कि पुलिस प्रक्रिया में गिरफ्तारी के दर्ज होने से पहले ही अपराधी को बहुत यातना दे दी जाती है। सभी नियम हिरासत में लेने के बाद ही लागू किए जाते हैं। इसलिए 1996 में गिरफ्तारी की प्रक्रिया से जुड़े 11 सुरक्षात्मक आदेश जारी किए गए थे। निर्णय के व्दारा सभी निवारक और दंडात्मक उपाय , किसी मौद्रिक क्षति के दावों के विकल्प के रूप में प्रस्तुत नहीं किए गए थे। भारत जैसे बड़े देश में इस प्रकार के अनुपालन में दशक लग गया। 2015 तक आठ अन्य आदेशों को विभिन्न पैमानों पर जांचने की तैयारी की गई। इसके लिए मानवाधिकार आयोग की जांचों की मदद ली गई। जहां आयोग नहीं था ,  वहाँ सीधे उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को प्रशासनिक जाँच करनी पड़ी। पूरी प्रक्रिया का तीसरा और अंतिम चरण 2015 में ही पूरा किया गया। अधिक से अधिक मानवाधिकार समितियां बनीं , जेलों में सीसीटीवी लगाए गए , पुलिस थानों में भी सीसीटीवी लगाए गए।

विडंबना यह है कि इन आदेशों के बाद भी हिरासत में मौतें होती चली आ रही हैं। 1985 के एक कानून आयोग ने एविडेन्स अधिनियम की धारा 114-बी के अंतर्गत पुलिस हिरासत में प्रताड़ना या मृत्यु होने पर पुलिस को दोषी माने जाने की वकालत की थी। परन्तु् यह अभी कानून नहीं बन पाया है। 2017 में इससे संबंधित विधेयक प्रस्तावित था।

इस समस्या के लिए कुछ खास करने की जरूरत नहीं है। जन-प्रतिनिधियों का एक ऐसा समूह रखा जाए , जो न्यायालय की देखरेख में पुलिस प्रक्रिया की हर स्तर पर निगरानी और कार्यान्वयन के लिए मुस्तैद रहे। उम्मीद की जा सकती है कि निकट भविष्य में ऐसे कदम उठाए जा सकेंगे।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित अभिषेक सिंघवी के लेख पर आधारित। 1 जुलाई , 2020

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